
कुमारो–मधुराज, विधुराज, पुरुराज वगेरे. भरतचक्रवर्ती चरमशरीरी
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा छे,–तो तेमना पुत्रो पण कांई तेमनाथी उतरे एवा
नथी, गमे तेम तो तेओ ऋषभदादाना पौत्रो छेने! तेओ पण
चरमशरीरी सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा छे. ‘व्यवहाररत्नत्रयथी सिद्धि छे के
निश्चयरत्नत्रयथी?’–ते बाबतमां पिता–पुत्रो वच्चे तत्वचर्चा थाय छे.
भरतेशवैभवमां ए प्रसंगनुं मजानुं वर्णन आवे छे; ते वांचीने गुरुदेवने
गम्युं...तेथी ते प्रसंग अहीं आपवामां आव्यो छे. आपणा बालसभ्योने
तत्त्वअभ्यास माटे ते खास प्रेरणाकारी छे.
एटले एमना पूर्वभव वखते आत्मधर्ममां आवेल वातनी तेमने क्यांथी
खबर होय? तेथी तेमने माटे आ लेख फरी अहीं आप्यो छे. (सं.)
तेमणे सिद्ध करी छे, अने तेओ सम्यक्दर्शनादिथी पण संयुक्त छे. भरते ते कुमारोने
त्यां बेसाडीने पोताना पुत्रोने पण बोलाव्या. भरतना सेंकडो पुत्रो पंक्तिबद्ध थईने
त्यां आववा लाग्या. पहेलां मधुराज, विधुराज नामना बे कुमारोए आवीने पिताना
तथा माताना चरणमां नमस्कार कर्या अने बाकीना कुमारोए पण नमस्कार कर्या.
कुमारोमां कोई पंदर वर्षना छे, अने कोई तेथी पण नानी उंमरना छे.
शब्दसिद्धि करी, क्यारेक न्यायशास्त्रथी तत्त्वसिद्धि करी, अने क्यारेक एकधाराप्रवाही
संस्कृत बोलता थका आगमना तत्त्वोनुं प्रतिपादन कर्युं.