: २२ : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
भरतजी तेमना बोलवाथी प्रसन्न थया; परंतु विशेष तत्त्वचर्चा कराववा खातर
ते छूपावीने फरीथी कह्युं–कुमारो! लोकरंजननी जरूर नथी, मोक्षसिद्धिने माटे शुं साधन
छे ते कहो. बीजी गडबड छोडीने ए बतावो के कर्मोनो नाश क्या प्रकारे थाय छे? तेना
विना आ बधुं व्यर्थ छे.
भरतना पुत्रो नानी उंमरना होवा छतां पण ज्ञानी हता, तत्त्वोना जाणनार
हता, तेओ पण ते भवे मोक्ष जनारा हता. कुमारोए जवाब आप्यो–पिताजी! पहेली
भूमिकामां भेदरत्नत्रय आवे छे खरा, पण कर्मोनो नाश तो अभेदरत्नत्रयने धारण
करवाथी ज थाय छे. अभेदरत्नत्रय ज कर्मोना नाशनो उपाय छे. ज्यारे
अभेदरत्नत्रयवडे कर्मोनो नाश थाय छे त्यारे मोक्षनी सिद्धि थाय छे.
फरीथी भरत महाराजाए पूछ्युं के–ते भेदरत्नत्रयनुं तथा अभेदरत्नत्रयनुं
स्वरूप शुं छे ते तो कहो.
त्यारे पुत्रोए कह्युं :– जिनदेव–गुरुनी भक्ति, तथा अनेक आगमशास्त्रनुं
मननपूर्वक अध्ययन करवुं वगेरे भेदरत्नत्रय छे. (भेदरत्नत्रयमां शुभराग छे अने ते
बंधनुं कारण छे.) तथा केवळ पोताना आत्मामां लाग्या रहेवुं ते निश्चयरत्नत्रय
(अथवा अभेदरत्नत्रय) छे अर्थात् केवळ पोताना आत्मानी श्रद्धा, पोताना आत्मानुं
ज्ञान अने पोताना आत्मामां स्थिरता ते अभेदरत्नत्रय छे. अभेदरत्नत्रय
वीतरागरूप छे अने ते ज मोक्षनुं कारण छे.
आ सांभळी नमिराजे कह्युं–कुमारोनुं कहेवुं बिलकुल ठीक छे.
चक्रवर्तीए नमिराजने पूछ्युं–शुं ठीक छे? कहो तो खरा!
नमिराजे उत्तर आप्यो के, भेदरत्नत्रय ते मुक्तिनुं कारण नथी, पण शुद्ध
आत्मानी श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां ज लीनता करवी ते अभेदरत्नत्रय श्रेष्ठ मुक्तिमार्ग छे–
–एम कुमारो कहेवा मागे छे, ते यथार्थ छे.
भरतजीए प्रश्न कर्यो–शुं व्यवहारथी ज पर्याप्ति नथी? निश्चयनी शुं
जरूरियात छे?
नमिराजे कह्युं–व्यवहारथी स्वर्गनी प्राप्ति थई शके छे, पण तेनाथी मोक्षनी
प्राप्ति थई शकती नथी. मोक्षसिद्धिने माटे निश्चयनी आवश्यकता छे.