: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : २३ :
नमिराजनी वात सांभळीने चक्रवर्ती प्रसन्न तो थया परंतु पोताना कुमारोनी
द्रढता जोवा माटे, ते छूपावीने कह्युं के–नमिराज! तमारी वात मने पसंद न आवी, तमे
बराबर कहेता नथी.
आ सांभळता ज भरतना पुत्रो बोली ऊठ्या के–पिताजी! अमारा मामाजी
तो बराबर ज कही रह्या छे. आवी सीधी वातने तमे केम कबुलता नथी?
भरते कह्युं– तमे कोई कारणे तमारा मामानो पक्ष करी रह्या छो. रहेवा द्यो, आ
मारा बीजा पुत्रो आवी रह्या छे तेमने आ वात पूछीशुं. तेओ शुं कहे छे ते जुओ.
एटलामां पुरुराज अने गुरुराज ए बे कुमारो आव्या, तेमने भरतजीए पूछ्युं
त्यारे तेओए पण एम ज कह्युं के निश्चयरत्नत्रय ज मोक्षनुं कारण छे. पण भरत कहे–
हुं ते स्वीकारतो नथी.
ए प्रमाणे बीजा अनेक कुमारो आवता गया अने भरत तेमने पूछता गया.
बारसो कुमारोने पूछयुं पण ते बधाये द्रढताथी एक ज प्रकारे उत्तर आप्यो. छेवटे सौथी
मोटा कुमारो अर्ककीर्ति, आदिराज अने वृषभराज आव्या. भरतजीए तेमने प्रश्न कर्यो
के–बेटा, मारी अने तमारा मामानी वच्चे एक विवाद उपस्थित थयो छे, तेनो निर्णय
तमारे आपवो जोईए.
कुशळ कुमारो वचमां ज बोली ऊठ्या–पिताजी! आपना अने मामाजीना
विवादमां वच्चे पडवानो अमारो अधिकार नथी. आप लोको श्री आदिनाथ दादाना
दरबारमां जई शको छो, त्यां सर्व निर्णय थई जशे.
सम्राटे कह्युं–आ तो साधारण वात छे, तमे सांभळो तो खरा. कुमारो! मुक्ति
माटे आत्मधर्म अर्थात् निश्चयरत्नत्रयनी शुं आवश्यकता छे? शुं व्यवहार के बाह्यधर्म
ज पर्याप्त नथी? आ नमिराज कहे छे के–स्थूळधर्मथी (व्यवहारधर्मथी) स्वर्गनी प्राप्ति
थाय छे,–मोक्षनी प्राप्ति तेनाथी थती नथी, आत्मधर्मथी (निश्चयधर्मथी) मुक्तिनी प्राप्ति
थाय छे.–आ संबंधमां तमारो शुं मत छे ते जणावो.
आ सांभळतां ज ते पुत्रो आश्चर्यचकित थई गया. मनमां सोचवा लाग्या के–
अरे आ शुं! पिताजी तो अमने हंमेशा कह्या करता हता के मुक्तिने माटे
आत्मानुभव ए ज मुख्यसाधन छे, अने आजे तेनाथी ऊलटुं आ शुं कही रह्या छे!!
आनुं कारण शुं