Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : १ :
वार्षिक लवाजम वीर सं. २४९४
चार रूपिया फागण
* वर्ष २प : अंक प *
परमानन्द – प्राभृत
[–जेना द्वारा जिनभगवाने भव्यजीवोने माटे परमआनंद मोकल्यो छे.]
कषायप्राभृत’ नी महान टीका जयधवलामां आचार्य श्री
वीरसेनस्वामी कहे छे के “परमानन्द और आनन्दमात्रकी ‘दो ग्रन्थ’ यह
संज्ञा हैा किन्तु यहां परमानन्द और आनन्दके कारणभूत द्रव्योंको भी
उपचारसे ‘दो ग्रन्थ’ संज्ञा दी है। उनमेंसे केवल परमानन्द और
आनन्दरुप भावोंका भेजना बन नहीं सकता है, इसलिये उनके
निमित्तभूत द्रव्योंका भेजना दोग्रन्थिक–पाहुड समझना चाहिए।
परमानन्दपाहुड और आनन्दपाहुडके भेदसे दोग्रन्थिक पाहुड दो प्रकारका
है। उनमेंसे केवलज्ञान और केवलदर्शनरुप नेत्रोंसे जिसने समस्त
लोकको देखलिया है, और जो राग और द्वेषसे रहित है ऐसे
जिनभगवानके द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान आचार्योंकी परम्परासे
भव्यजनोंके लिये भेजे गये बारह अंगोके वचनोंका समुदाय अथवा
उनका एकदेश परमानन्द दोग्रन्थिकपाहुड कहलाता है। इससे अतिरिक्त
शेष जिनागम आनन्दमात्र पाहुड है।
(जयधवला भा. १, पृ. ३२प)
वीरसेनस्वामी आ कथनअनुसार समयप्राभृत ते पण
परमानंदपाहुड छे... जगतना जीवोने माटे सर्वज्ञ जिनेन्द्रभगवाने सन्तो
मारफत आ परमागमद्वारा परमानंद मोकल्यो छे. आनंदरूपभाव एकलो
तो कई रीते मोकलाय! एटले जाणे ते आनंदने आ प्राभृत–शास्त्रोमां
भरीने मोकल्यो छे...तेथी परमआनंदनुं निमित्त एवुं आ प्राभृत ते
परमानंदपाहुड छे...ने ते आजेय आपणने परमानंद आपे छे.