
प्रकारनी धारणा अने स्मृतिनी ताकात मतिज्ञानमां छे. मतिज्ञाननी ताकात वडे असंख्य
वर्षो पहेलांना संस्कार पण स्मरणमां आवी शके छे, परंतु–एक वात और छे के–
मतिज्ञानमां पूर्वनुं याद आवे तेना करतां जे मतिज्ञान स्वसन्मुख थईने आत्माने
जाणे–ते ज्ञाननी खरी महत्ता छे. भले पूर्वनुं घणुं जाणे–पण जो सर्वोत्तम एवी
आत्मवस्तुने न जाणी तो शुं लाभ ?
तीर्थंकरोना उत्तम जीवननुं स्मरण थाय, तेमणे साधेला मोक्षमार्गनुं स्मरण थाय ने
तेवा मार्गे जवानी पोतानी भावना जागे–एवो उत्तम हेतु तीर्थयात्रामां छे. तीर्थयात्रा
ए कांई फरवानुं के रखडवानुं नथी, परंतु तेमां तो मोक्षमार्गनुं स्मरण अने तीर्थंकरादि
प्रत्येनी भक्ति पुष्ट थाय छे. गृह–व्यवहारथी निवृत्त थईने धार्मिक भावनाओ जागे छे
ने तीर्थोमां अनेक साधर्मीनो तेमज कोई संत महात्माओना पण सत्संगनो योग बनी
जाय छे. तीर्थयात्राना हेतु बाबत पू. गुरुदेवे हस्ताक्षरमां लख्युं छे के– “स्वालंबी
उपयोगरूप स्वरूपने साधीने जे क्षेत्रथी सिद्ध थया ते ज क्षेत्रे समश्रेणीए ऊर्ध्व
सिद्धपणे बिराजे छे, तेना स्मरणना कारणरूप आ तीर्थो निमित्त छे.”
प्रश्न:–
त्यांना जीवोनी एटली मर्यादा छे के सम्यग्दर्शनरूप धर्म करी शके, पण तेथी आगळ
श्रावकधर्म के मुनिधर्म त्यां होतो नथी. सम्यग्दर्शन पामेला असंख्यजीवो त्यां छे–तेमां
केटलाक जीवो तो एवा छे के त्यांथी नीकळीने मनुष्यलोकमां सीधा तीर्थंकर थशे.