Atmadharma magazine - Ank 294
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र २४९४ : आत्मधर्म : १९
जीवना पांच भावो
(तेमांथी मोक्षना कारणरूप भाव कया?)
[राजकोट शहेरमां आ वखते समयसार गा. १प उपर
प्रवचनो पूर्ण थया पछी समयसार गा.३२० उपरनी जयसेनाचार्य
रचित ‘तात्पर्यवृत्ति’ नामनी टीका उपर प्रवचनो थया हता.
प्रवचनमां अनुकूळता रहे ते माटे ते गाथानो गुजराती अनुवाद
भाईश्री हिंमतलाल जे. शाहे करेल ते छपावेल हतो. एना उपरनां
प्रवचनो छपावीने ‘आत्मधर्म’ ना ग्राहकोने भेट आपवानी
जाहेरात राजकोटना शेठश्री मोहनलाल कानजीभाई घीया तरफथी
करवामां आवी छे; एटले अहीं ते प्रवचनोमांथी थोडोक नमूनो
आपीए छीए.
]
*
ज्ञानस्वभावी आत्मा परनो अकर्ता ने अवेदक छे, तेने भूलीने परना कर्तृत्वनी
ने भोकतृत्वनी बुद्धिथी जीव संसारमां दुःखी थई रह्यो छे; तेथी अहीं आचार्यदेव
आत्मानो परथी भिन्न अकर्ता–अभोक्ता ज्ञानमात्र स्वभाव बतावे छे :–
दिठ्ठी संयपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव ।
जाणदि य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।। ३२०।।
जेम आंख अग्निने करती नथी के तेनी उष्णताने वेदती नथी; जो आंख
अग्निने करे के भोगवे तो तो आंख बळी जाय. –पण आंख तो देखनारी ज छे;
संधुकरण करनारने आंख देखे छे ने अग्निथी उष्ण थयेल लोखंडना गोळाने पण आंख
देखे ज छे, पण तेने आंख करती के भोगवती नथी, आंख तो देखनार ज रहे छे, तेम
ज्ञान अने दर्शन जेनी आंख छे एवो आत्मा पण बाह्यपदार्थोने के कर्मना बंध–मोक्षने
करतो नथी ने भोगवतो नथी, तेनो द्रष्टा–ज्ञाता ज रहे छे. –आत्मानो द्रष्टा–ज्ञाता
स्वभाव अनुभवमां लेवो ते धर्म छे.