भिन्नपणे आत्मानो अनुभव ज्ञानवडे थाय छे. आवी भिन्नता जे ज्ञाने जाणी ते ज्ञान
रागादि साथे एकता करतुं नथी पण तेने पोताथी भिन्न ज जाणे छे. एटले ते ज्ञान
रागथी जुदुं परिणमतुं थकुं आस्रवोथी निवर्ते छे, कर्मनो आस्रव त्यां थतो नथी. माटे
ज्ञान ते ज कर्मबंधथी छूटवानो उपाय छे. अहो! सर्वज्ञ भगवाने आत्माने ‘भगवान’
कहीने संबोध्यो छे. जेम माता बाळकने हालरडामां तेना वखाण संभळावे छे के ‘मारो
दीकरो डाह्यो...’ तेम जिनवाणी माता आत्माना गुणना हालरडां गाईने तेने जगाडे छे
के अरे जीव! तुं भगवान छो...तुं पवित्र छो...तुं आनंदरूप छो...भाई! तुं तारा
निजगुणनो प्रेम कर. रागमां तारी शोभा नथी. पोताना गुणोनो महिमा भूलीने
अनादिथी जीव रागना प्रेममां रोकाई रह्यो छे, पोताना आत्माने रागरूप ज अनुभवी
रह्यो छे–ते ज भवभ्रमणनुं कारण छे. पोतानो स्वभाव रागरहित होवा छतां राग
सहित अनुभवे छे, पण भूतार्थस्वभाव शुद्ध छे ते राग वगरनो छे एवो अनुभव
अने भेदज्ञान करवुं ते मोक्षनुं कारण छे.
रागादि आस्रवभावो आकुळतारूप छे ने दुःखनां कारणो छे, बंधनां कारणो छे;
कारण नथी. आत्मानो अनुभव निराकुळ शांत सुखरूप छे, तेमां दुःख नथी. भाई, तारे
सुखी थवुं होय तो आनंदमूर्ति तारो आत्मा छे तेनी सन्मुख तारे जोवुं पडशे. राग तो
दुःखनुं घर छे तेनी सामे जोये सुख तने नहि मळे. सुखनुं घर आत्मा छे तेमां उपयोग
मूकतां परम सुखनो अनुभव थाय छे.
कारण छे, मात्र ते ज दुःखनुं कारण छे, ए सिवाय बीजुं कोई दुःखनुं कारण नथी; रोग,
निर्धनता वगेरे बाह्य संयोग कांई दुःखनुं कारण नथी, राग–द्वेष–मोहरूप जे विषमता ते
ज दुःखनुं कारण छे.