Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : ३५ :
आपणा बंधुओ लखे छे –
चंद्राबेन (सभ्य नं. २) तथा मायाबेन (सभ्य नं. ३) लखे छे के–
अमे शरीरने ज आत्मा मानता ते भूल भांगी गई.
अमे पुण्यने धर्म मानता ते मान्यता छूटी गई.
अमे जीव अने अजीवना परिणमनने स्वतंत्र जाण्युं.
अमे जिनेन्द्रदेवना दर्शन करवा लाग्या ने रात्रीभोजन छोडयुं.
अमे तत्त्वज्ञाननो अभ्यास कर्यो ने सीनेमा जोवुं बंध कर्युं.
जामनगरथी सभ्य नं.१००८ तथा १४१२–१३–१४ लखे छे के ‘दर्शनकथा’ पुस्तक
भेट मळ्‌युं ते अमे बधाए वांच्युं; वांचीने खूब ज आनंद थयो. पंच परमेष्ठीना
दर्शननो केटलो महिमा छे ते वांचीने अमे पण कायम दर्शन करवा जवानो निश्चय
कर्यो छे. (धन्यवाद!)
अमदावादथी धीरजलाल एम. जैन लखे छे के–अहीं बालविभागना सभ्य
प्रवीणचंद्रभाई छे तेमनी पासेथी आत्मधर्म लावीने वांच्युं हतुं; मने तेमां खूब रस
पड्यो, अने मने लाग्युं के आत्मानुं ज करवा जेवुं छे. तो आजथी बालविभागमां
जोडावानी मारी ईच्छा छे.
जाणवा माटे खूब ज उत्साह आपे छे. तेना भावो कोयडाओ टूचका प्रश्नोत्तर वगेरेथी
तत्त्वनी गंभीरता जाणवा तथा समजवा माटे खूब तालावेली थाय छे. आत्मधर्म
आवतां सौ प्रथम ते विभाग उपर नजर पडे छे. बालविभाग नाना–मोटा सौने
ज्ञान साथे आनंद आपे छे. बालविभाग शरू करवा माटे अभिनंदन! अमे सभ्य
थवामां मोडा पड्या ते बदल दुःख थाय छे. ली. राजेन्द्र जैन
F.Y.B. Sc.
ठामठाम जईने कां पूछे छे?
कोई आत्मानुभवी संतने पूछ.
बहेरा कोण?
जे हितकारीवचनो न सांभळे ते.