Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : १ :
वार्षिक लवाजम वीर सं. २४९४
चार रूपिया जेठ
वर्ष: २प: अंक ८
निजपदने संभाळ
श्री गुरु समजावे छे के रे चैतन्य! तुं तारा निजपदने
भूलीने रागादि परपदमां लीन थईने सूतो छे, तेथी तने धर्म थतो
नथी. आत्मामां सर्वज्ञशक्ति छे; ते सर्वज्ञता जेमणे प्रगट करी
तेमनी सहज वाणीमां एवो उपदेश आव्यो के आत्मामां अनंत
आनंद छे. शेनो हशे ए आनंद? –कोई बाह्य वस्तुनो ए आनंद
नथी, रागनो के शरीरनो ए आनंद नथी, ए तो बधा परपद छे;
तेमनाथी भिन्न चैतन्यस्वरूप निजपद छे, ते निजपदना
अनुभवनो परम आनंद छे. आवा निजपदने जेओ जाणता नथी
ने रागादिने ज देखे छे तेने सन्तो आंधळा कहे छे. अरे चैतन्यदेव!
तुं तो जगतनो महान पदार्थ, रागादि अशुद्धतामां तारुं पद नथी.
अनादिथी तारा शुद्ध स्वरूपने भूलीने जे रागादि अशुद्धभावोरूपे ज
तुं पोताने अनुभवी रह्यो छे ते तारुं निजपद नथी पण अपद छे–
अपद छे, एम तुं जाण, ने निजपदने संभाळ.
(चोटीला –प्रवचनमांथी)