Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : आत्मधर्म जेठ : २४९४ :
जीव अने शरीरनी भिन्नता
शरीर तमे छो? – ना.ना.ना
जीव अने शरीर बंने वस्तु तद्न जुदी होवा छतां मोहथी जीव एम माने छे के
शरीर हुं छुं.
हवे जेवुं आ शरीर छे, एवा ज रंग–रूप–आकारवाळुं पत्थरनुं पूतळुं कोई
चैतन्यअनुविधायि परिणाम ते उपयोग
‘उपयोग’ ने ‘चैतन्यअनुविधायी परिणाम’ कहेल छे, एटले के ते चैतन्यने
अनुसरनार छे, परने अनुसार नथी.
परथी ज्ञान थाय एम जे माने तेणे उपयोगने चैतन्यअनुसारी न मान्यो पण
जडअनुसारी मान्यो; जड अनुसारी परिणाम तो जड होय, तेथी तेेणे उपयोगने जड
साथे एकमेक मान्यो. उपयोग तो चैतन्यने ज अनुसरनारो छे. जडथी तो ते तद्न
भिन्न छे. आम जड अने उपयोगनी अत्यंत जुदाई जाणवी जोईए.
उपयोग जडने (चश्मा वगेरेने) अनुसरनारो नथी.
उपयोग रागने पण अनुसरनारो नथी.
उपयोग तो चैतन्यस्वभावने अनुसरनारो छे.
एटले जडथी ने रागथी विमुख थईने, पोताना चैतन्यस्वभावनी सन्मुख
थईने जे उपयोग प्रगट्यो ते आत्मानुं खरूं कार्य छे, ने ते उपयोग आनंदना अनुभव
सहित छे.
केवळज्ञान ते चैतन्यअनुविधायि परिणाम छे.
अवधि–मनःपर्यय ते चैतन्य अनुविधायि परिणाम छे.
मति–श्रुतज्ञान ते पण चैतन्यअनुविधायि परिणाम छे.