Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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“आत्मधर्म” Regd. No. G 182
आजना संस्कारी बाळको
‘शुद्धोसि बुद्धोसि’ नां हालरडांनी वात आवे छे, तेम आजे अध्यात्म–
वातावरणमां ऊछरता छ–आठ वर्षना नाना बाळको पण गीत गाय छे के–
हुं छुं आत्मा....परमात्मा.....
हुं तो आनंदनुं आनंदनुं आनंदनुं धाम...
–हुं
छुं आतमा.
कोण कहे हुं शरीरवासी ?
ना...ना...ना...
हुं तो सिद्धस्वरूपी चेतनरूपी,
हा...हा...हा...
हुं
छुं आत्मा...
नाना बाळकने मोढे ज्यारे आवा गीत सांभळीए छीए त्यारे हृदय पुलकित
बने छे अने घरघरना बाळकोमां आवुं वातावरण प्रसरे एवी उत्कंठा जागे छे.
एक तरफ दुन्यवी वातावरणमां ऊछरता बाळको ‘जपाननी गुडीया अने बोल
राधा बोल’ –जेवा सभ्यताहीन गीतो रस्तामां बबडता होय छे त्यारे बीजी तरफ
बालविभागना सभ्यो घरे घरे ‘आत्मा ...परमात्मा’ ना अध्यात्मगीतोनुं गूंजन करे
छे. –आटलुं महान युगपरिवर्तन गुरुदेवना प्रतापे थई रह्युं छे. आपना बाळकोनी
कुसंस्कारथी रक्षा करवा, ने तेनामां उत्तम धर्मसंस्कारो सींचवा तेने आत्मधर्म वंचावो ने
बालविभागना सभ्य बनावो.
सभ्य बनवा माटे :–
पूरुं नाम : सरनामुं : गाम : अभ्यास, उंमर अने जन्मदिवस नीचेना सरनामे
लखी मोकलो....एटले आपने घेर बेठां सभ्यपत्रक मळी जशे. (कांई फी नथी)
संपादक
: आत्मधर्म बालविभाग
सोनगढ (सौराष्ट्र)
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (प्रत : २प००)