जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : ४१ :
आत्मकार्यनी प्रेरणा
गुरुदेव वारंवार कहे छे के अरे जीव! तुं महिमा तारा स्वभावनो कर.
चार गतिना शरीरने धारण करवा ते तो शरम छे. अशरीरी आत्मामां
उपयोग जोडीने, तेने स्वविषय बनावीने तेमां ठर....तो आ शरमजनक जन्मो
छूटे...ने आनंदजनक सिद्धपद प्रगटे.
निजस्वरूपनी प्राप्ति ते आत्मार्थीनो मनोरथ छे. पोताना स्वरूप वगर
एक क्षण पण आत्मार्थीने गमे नहि. आत्मप्राप्ति वगरनुं जीवन आत्मार्थी केम
जीवी शके?
निजस्वरूपना अंतरंग प्रयासथी सम्यकत्व अत्यंत सुगम होवा छतां
जीवे आटला बधा काळ सुधी ते कार्य केम न कर्युं? –एनो पण खेद छोडीने हवे
प्रसन्नताथी ने उत्साहथी जीवे ते कार्य तत्काळ सद्य एव करवा जेवुं छे. –जाणे
अत्यारे ज ध्यानमां बेसीने स्वानुभव करीए.
साधकसन्तो आपणने सदाय केटली आत्मानी प्रेरणा आपी रह्यां छे!
जाणे सम्यकत्व ज साक्षात् आपी रह्या छे. एमना जीवननुं सूक्ष्मताथी
अवलोकन करतां पण सम्यकत्व थई जाय–एवा संतो आपणी समक्ष
बिराजीने सदाय आपणा उपर महान कृपा करी रह्या छे. ए कृपाना प्रतापे
आपणे आपणुं स्वानुभवकार्य साधी लेवानुं छे. अत्यारे तो दुनियामां बीजुं
बधुंय भूली जईने जीवनमां आ एक ज आत्मकार्यमां बधी शक्ति
लगाववानी छे.
भोगभूमिमां भगवान ऋषभदेवना आत्माने सम्यकत्व पमाडनारा श्री
प्रीतिंकर मुनिराजना शब्दोमां कहीए तो–