Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
उच्च कोटिनुं अध्यात्मसाहित्य लखायुं छे; ने ते द्वारा जिनवाणी प्रत्येनी परमभक्ति
पुष्ट थई छे.
सं.२००० मां गुरुदेवना राजकोटथी पुन: सोनगढना विहार वखते ज्यारे हुं
थोडा दिवस मोरबी गयो त्यारे कुटुंबीजनोने लाग्युं के आ छोकरो धर्मनी लाईनमां
उतरी जशे, एटले आखा कुटुंबना वडीलोए भेगा थईने आ मार्ग छोडीने मुंबई जवा
खूब दबाण करवा मांडयुं, परंतु– आ बाळकना हृदयमां तो पू. गुरुदेवना चरणनो
प्रभाव अंकित थई चूक्यो हतो, एटले ज्यारे मुंबई जवा माटे वडीलोए दबाण करीने
पूछ्युं त्यारे मुखने बदले आंखोए ज अश्रुनी धारा वहावीने जवाब आप्यो. जो के
आंखनी अश्रुधाराए मुंबई जवानी वातने धोई नांखी हती पण वडीलोनुं दबाण तो
ऊलटुं वधवा लाग्युं, छेवटे तेमना सकंजामांथी छूटवा ‘रामजीभाई पासेथी रजा लईने
आवुं’ एम कहीने हुं त्यांथी भागी आव्यो, ने सीधो गुरुदेव पासे लाठी शहेर पहोंच्यो.
–ए दिवस हतो. सं. २००० ना चैत्र सुद तेरस !
आम अनेक खेंचताण वच्चेथी पसार थईने गुरुदेवना पवित्र चरणकमळमां
आ बाळक वस्यो ने सोनगढमां गुरुदेवनी मीठीमधुरी अमीछायामां जीवनघडतर थतुं
गयुं. अहा, गुरुदेवना उपकारनी शी वात!
आजे तो ए वातने पचीस वर्ष–पा सैको–थयो...आ पचीस वर्षमां तो
गुरुदेवना चरणोमां केवा केवा उत्तम प्रसंगो बन्या...ने गुरुदेवना श्रीमुखथी केवी केवी
उत्तम प्रसादीओ आशीर्वादपूर्वक प्राप्त थई....एनां हजारो संभारणा आजे आत्माने
ऊंडा संशोधनमां लई जाय छे...ने आवा संतोना पवित्रजीवन प्रत्ये परम अर्पणता
प्रगटावे छे.
जीवनमां गुरुदेवे आ वात तो रगडी रगडीने घूंटावी छे के, जो आत्मार्थ साधवो
ज छे तो जीवननी कोई परिस्थिति आपणने रोकी शकवानी नथी. आत्मार्थ साधवानो
ज्यां अंदरमां द्रढ निर्णय छे ने साची लगन छे त्यां जगतसंबंधी अवनवा अनेक
प्रसंगोमांथी पसार थवा छतां ए निर्णय के ए लगनीने जराय ढीलीपोची थवा न देवी,
ने संतोना चरणमां तेनुं बळ वधारता रहेवुं, परम वैभवथी भरपूर जे पोतानुं शुद्ध
स्वरूप तेनो महिमा करीकरीने तेमां अंतर्मुख थवुं ते आपणुं कर्तव्य छे. जीवनमां वधु ने
वधु वैराग्यथी, वधुने वधु आत्मरसथी गुरुचरणमां पोतानुं हित साधवानुं एक ज लक्ष
राखीने क्षणक्षण–पळपळ आत्मसाधनामां प्रयत्नशील रहेवुं.
अहो, जीवनमां रत्नचिंतामणि समान जे सन्तरत्नो मने मळ्‌या छे तेमना
अनंत उपकारना स्मरणपूर्वक नमस्कार करुं छुं.
(२४९४ अषाड सुद बीज : सोनगढ)
–ब्र. हरिलाल जैन