Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : र४९४ आत्मधर्म : ५ :
राग – द्वेषना क्षयनी रीत : शुद्धचैतन्य – अनुभव
(समयसर कलश २१८ थ २०)
आचार्यदेव कहे छे के हे भाई ! जेम ज्ञान तारो कायमी
स्वभाव छे, तेम राग–द्वेष कांई तारो स्वभाव नथी; माटे
वस्तुस्वभावना अनुभव वडे ते राग–द्वेषने मटाडवानुं सुगम
छे, तेमां कांई मुश्केली नथी.
जीवनुं मूळस्वरूप राग–द्वेष नथी; जीवनुं मूळस्वरूप तो ज्ञान छे. ज्ञानस्वरूपना अनुभव
वडे राग–द्वेषनो क्षय थई जाय छे. राग के द्वेष, अशुभ के शुभ ते अशुद्धभावपरिणति छे;
अज्ञानने लीधे जीव पोताने तेवा अशुद्धस्वरूपे ज अनुभवे छे. ज्ञानी तो राग–द्वेषथी भिन्न
शुद्धचैतन्यथी ओळखाण वडे शुद्धअनुभवशील थया छे, एटले पोताने शुद्धस्वरूपे ज अनुभवता
थका रागादि अशुद्धभावने क्षय करे छे. शुद्धताना अनुभव वगर राग–द्वेषनो क्षय कदी थई शके
ज नहि. तेथी कहे छे के, शुद्धचैतन्यना अनुभवशील एवा सम्यग्द्रष्टि जीवो, तत्त्वद्रष्टिवडे एटले
के शुद्ध जीवस्वरूपना अनुभववडे राग–द्वेषने मूळमांथी मटाडीने दूर करो.
अहीं तो ‘सम्यग्द्रष्टि’ नो अर्थ ज ‘शुद्धचैतन्य–अनुभवशील’ एम कर्यो; शुद्धचैतन्यना
अनुभवने ज तत्त्वद्रष्टि कही छे, अने एवा अनुभववाळा जीवोने ज सम्यग्द्रष्टि कह्या छे. आवा
अनुभवरूप शुद्ध तत्त्वद्रष्टि वगर राग–द्वेष कदी छूटे नहि. राग–द्वेषथी भिन्नताना अनुभव
वगर राग–द्वेष केम मटे? रागवडे मोक्ष थवानुं जे माने छे तेने तो मोक्ष पण रागवाळो ज ठर्यो!
जीवनुं सहज स्वरूप राग–द्वेषवाळुं नथी. जीवनुं सहज स्वरूप तो ज्ञान–आनंदरूप छे.
आवा सहज स्वरूपना अनुभवद्वारा मुक्तिपदनी प्राप्ति थाय छे ने राग–द्वेषादि विभावपरिणति
मटी जाय छे.
कोई कहे के ‘राग–द्वेष छोडो...’ पण राग–द्वेष वगरनो शुद्धआत्मा केवो छे तेना अनुभव
वगर राग–द्वेष छूटे ज नहि; शुद्धपरिणति थया वगर विभाव परिणति