Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
अनादि–अनंत
मंगळरूप आत्मा
*
‘षट्खंडागम’ ए जिनेन्द्रभगवाननी वाणीनो सीधो
प्रसाद छे, तेमां वीतरागतानी अनेक अवनवी वानगी भरेली
छे; गुरुदेव पण कोईवार तेमांथी अद्भुत वानगी पीरसे छे.
एवी एक सुंदर प्रसादी दीवाळीना प्रसंगे अहीं आपी छे.
अवारनवार आवी वानगी ‘आत्मधर्म’ मां आपवानी
भावना छे.
श्री धवलशास्त्रना भाग १ पृ. ३४ थी ३९ मां आत्माना मांगळिकनो अधिकार
घणो ज अपूर्व छे. आ अधिकार द्वारा आचार्यभगवान जीवस्वभावनी ओळखाण
करावे छे: जीव मंगळ छे, पण जीवनी अवस्थामां थता मिथ्यात्वादि भावो मंगळरूप
नथी, एम स्वभाव अने विभाव वच्चे अपूर्व रीते भेदविज्ञान कराव्युं छे. खरेखर ए
मंगळ अधिकार पोते महा मंगळरूप छे.
पृ. ३६मां आचार्यप्रभु जणावे छे के–द्रव्यार्थिकनयनी प्रधानताथी जीव अनादि
अनंत मंगळस्वरूप छे.
त्यां शिष्य प्रश्न करे छे के ए रीते जीवने अनादि–अनंत मंगळ कहेतां तो
मिथ्यात्वअवस्थामां पण जीवने मंगळपणानी प्राप्ति थई जशे?
त्यां समाधान करतां आचार्यदेव वीरसेनस्वामी जणावे छे के एवो प्रसंग तो
अमने ईष्ट ज छे! वाह, अहीं आचार्यभगवान कहे छे के विकारीदशा वखते पण
जीवनो स्वभाव मंगळरूप छे ते तो अमारे सिद्ध करवुं छे. विकार वखते तारो स्वभाव
ते विकारमय थई गयो नथी; पण विकार वखते य तारो स्वभाव मंगळरूप ज छे.
एटले अवस्थाने गौण करीने स्वभावद्रष्टिथी जीवस्वभावनी ओळखाण करावे छे. आ
संबंधी विशेष खुलासो करतां आचार्यप्रभु जणावे छे के–