Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९प आत्मधर्म : २७ :
हुं एक छुं–अभेद छुं–एवोय विकल्प कांई सम्यग्दर्शनमां नथी,–पण समजाववुं
कई रीते? सामो समजनार जो भूतार्थस्वभावरूप वाच्यने लक्षमां पकडी ल्ये तो तेने
‘भेदरूप व्यवहारद्वारा अभेद बताव्यो’–एम कहेवाय. पण भेदमां ज अटकी रहे ने
अभेदस्वभावने न अनुभवे–तेनो तो व्यवहार पण साचो नथी–केमके ते तो भेदना
विकल्पने ज भूतार्थ मानीने तेना ज अनुभवमां रोकाई गयो छे. धर्मी तो समजे छे के
शुद्धस्वभावना अनुभव तरफ जतां जतां वच्चे ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’ ईत्यादि भेदविकल्प
ऊठे छे, पण ते विकल्पनो प्रवेश अंर्तस्वभावमां नथी, तेथी ते अभूतार्थ छे; ते
अनुभवनुं खरूं साधन नथी, ने तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. सम्यग्दर्शनमां तो
एकलो शुद्धआत्मा ज प्रकाशे छे. ते पर्याय अंदरमां वळीने अभेद थई छे, तेमां भेद
देखातो नथी. पण आत्मा एकलो नित्य ज छे ने पर्याय तेमां छे ज नहि–एम नथी.
आत्मा एकांत नित्य ज छे ने अनित्य नथी, अथवा द्रव्य ज छे ने पर्याय छे ज नहि,–
एम एकांत नथी. द्रव्यपर्यायरूप अनेकान्तवस्तुने जाणीने, तेना भेदना विकल्पमां न
अटकतां पर्यायने अंतर्मुख करीने अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे. तेमां
निर्विकल्पता थतां आनंदनो अनुभव थाय छे.–ने जीवनुं आ ज प्रयोजन छे. आवा
प्रयोजननी सिद्धि माटे पर्यायभेदरूप व्यवहारने गौण करीने तेने अभूतार्थ कह्यो छे; ने
शुद्ध–भूतार्थ स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन कह्युं छे.
परवस्तु तो आत्मामां (–पर्यायमां पण) छे ज नहि, एटले तेने गौण करवानो प्रश्न
ज नथी. पण पोतामां जे भावो विद्यमान छे तेने गौण–मुख्य करवानी वात छे. ज्ञानादि गुणो
के सम्यक्त्वादि पर्यायो तेनो भेदथी विचार करतां विकल्प ऊठे छे ने अभेदनो आनंद
अनुभवमां आवतो नथी, ज्यारे ते भेदना विकल्पो छोडीने, अभेदरूप आत्माने अनुभवमां
ल्ये त्यारे ते भेदो गौण थई जाय छे, तेनुं लक्ष छूटी जाय छे, ने एकत्वनिश्चयरूप परिणति
थतां अतीन्द्रिय आनंद अनुभवाय छे. आवो आनंद ए ज जीवनुं प्रयोजन छे.
हे जीवो! अभेद स्वभावसन्मुख थईने एवा आनंदने तमे आजे अनुभवो
टूंकी टच वात एटलुं करवुं
जाणो हे भ्रात; अंदर ठरवुं
सिद्धोनी साथ स्वरूप चुकी
रे’ वुं छे आज. बीजे न जावुं.