Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
अमदावादना स. नं. ९८४ उषाबेन लखे छे के–‘आ वखतनुं ‘आत्मधर्म’
वांचतां जाणे सिद्धपदना भणकारा वागता हता. ज्यारे ए अपूर्वदशा प्राप्त थशे. त्यारे
तो अलौकिक आनंद थशे.” साथे तेमणे दर्शना अने चेतना नामनी बे बहेनपणीनो
संवाद लखीने ते–द्वारा उत्तम भावना व्यक्त करी छे, ते पण अहीं आपीए छीए:–
बे सखीनो संवाद
दर्शना:– हे सखी! आ असार संसारमां साचुं सुख क््यां हशे?
चेतना:– हे प्रिय सखी! साचुं सुख तो पोतामां ज रहेलुं छे.
दर्शना:– हे सखी! तो पछी आ जीवने सुख केम मळतुं नथी?
चेतना:– हे सखी! सांभळ,
जेम राजानो राजवैभव अखूट भंडारथी भरपूर होय छतां पण एक साधारण
प्रजाजन पासे भीख मांगे तो ते मूर्ख कहेवाय, तेम आ जीव पोते अनंत अनंत ज्ञान–
दर्शनादि गुणोनो पिंड सुखस्वरूपी होवा छतां पण परद्रव्यमां सारा–नरसापणानी
(ईष्ट–अनिष्ट) मिथ्याकल्पना करीने अनंत भवभ्रमण करी रह्यो छे.
दर्शना:– हे सखी! तुं शुं कहे छे? आ जीव...राजा समान छे? हुं तो तद्न
अजाण छुं, अज्ञान छुं.
चेतना:– अरे, हे प्रिय सखी! राजानो राजवैभव तो एक पर्याय पूरतो
क्षणभंगुर विनश्वर छे, पण आ चैतन्यराजा तो एवो छे के, जेम जेम एनो अनुभव
करे तेम तेमांथी नवुं नवुं सुख प्रगटे, जे अनंत अनंतकाळ सुधी पण अक्षयसुख आपे.
दर्शना:– हे सखी! आत्मानो अनुभव केवी रीते थाय?
चेतना:– जो तने सांभळवानी, समजवानी जिज्ञासा थई छे तो सांभळ, आजे
तो आ ज वात करीए. आ आत्मा अनादि अनंत छे, ज्ञानस्वभावी छे तेने ज्यारे एम
भेदज्ञान थाय के, आ शरीर, रागद्वेषना भाव ते हुं नहि अने मात्र ज्ञान ते ज हुं,–त्यारे
तेने आत्मानो अनुभव थाय, तेने सम्यग्दर्शन कहे छे, तेने भेदज्ञान कहे छे, तेने
आत्मसाक्षात्कार कहे छे.