Atmadharma magazine - Ank 302
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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३०२
‘अरिहंतोनो विरह नथी’
अत्यारे आ भरतक्षेत्रमां अरिहंतदेवनो विरह छे?
ना, अमने अरिहंतनो विरह नथी. केमके अरिहंतनुं
स्वरूप अत्यारे पण अमारा ज्ञानमां वर्ते छे, अने मोहने
क्षय करनारो अरिहंतदेवनो उपदेश अत्यारे पण अमने
प्राप्त छे. ते उपदेश झीलीने अमे मोहक्षयना मार्गमां वर्ती
रह्या छीए; अरिहंतदेवनो मार्ग पामीने ते मार्गे अमे जई
रह्या छीए, माटे अमने अरिहंतदेवनो विरह नथी.
जेना ज्ञानमां अरिहंत नथी, अरिहंतनुं स्वरूप जेणे
जाण्युं नथी, अरिहंतनो मार्ग जेणे ओळख्यो नथी तेने ज
अरिहंतनो विरह छे. कदाच अरिहंतदेवनी सभामां ते बेठो
होय तोपण भावथी तेने अरिहंतनो विरह छे. ने ज्ञानीने
कदाच क्षेत्रथी अंतर होय तोपण भावथी अंतर नथी, माटे
तेने विरह नथी; अरिहंतदेव तेना हृदयमां ज बेठा छे.
(आ संबंधी गुरुदेवना विशेष प्रवचनो माटे जुओ अंदर)
वीर सं. २४९प मागशर (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २६: अंक २