: ३२ : आत्मधर्म : पोष : २४९प
धर्मात्मानुं
स्वरूप – संचेतन
जे अनादिथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो, ने विरक्त
ज्ञानी गुरुवडे निरंतर परम अनुग्रहपूर्वक शुद्ध आत्मानुं
स्वरूप समजाववामां आवतां परम उद्यमवडे समजीने जे
ज्ञानी थयो. ते शिष्य पोताना आत्मानो केवो अनुभव करे
छे तेनुं आ वर्णन छे; तेमां ते पवित्रात्मा गुरुना उपकारने
भूलतो नथी. गुरु निरंतर समजावे छे एम कहीने शिष्यमां
निरंतर समजवानी जे धगश अने पात्रता छे ते पण
सूचव्या छे.
श्री समयसार गा. ३८ उपर पू. गुरुदेवनुं प्रवचन
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञानदर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!
जेवुं आत्मानुं स्वरूप छे तेवुं गुरुना उपदेशथी जाणीने अनुभव्युं, ते अनुभव
केवो थयो? तेनुं वर्णन करतां शिष्य कहे छे के–पहेलां तो अनादिथी मोहरूप अज्ञानथी
अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो, तद्न अज्ञानी हतो.
पछी विरक्त गुरुओए परमकृपा करीने मने निरंतर आत्मानुं स्वरूप समजाव्युं.
जेमणे पोते आत्माना आनंदनो अनुभव कर्यो छे...जेओनो संसार शांत थई गयो छे...
जेओ शांत थईने अंतरमां ठरी गया छे...एवा परम वैरागी विरक्त गुरुए महा
अनुग्रह करीने शुद्धआत्मस्वरूप मने वारंवार समजाव्युं. जे समजवानी मने निरंतर
धून हती ते ज गुरुए समजाव्युं.
श्रीगुरुए अनुग्रह करीने जेवो मारो स्वभाव कह्यो तेवो झीलीने में वारंवार ते
समजवानो उद्यम कर्यो...‘अहो हुं तो ज्ञान छुं, आनंद ज मारो स्वभाव छे’ एम