Atmadharma magazine - Ank 303
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९प आत्मधर्म : ३३ :
मारा गुरुए मने कह्युं, ते में सर्व प्रकारना उद्यमथी अंतर्मंथन करीने निर्णय कर्यो...मारो
उद्यम थतां काळलब्धि पण भेगी ज आवी गई...कर्मो पण खसी गया...सर्व प्रकारना
उद्यमथी सावधान थईने हुं मारुं स्वरूप समज्यो. हुं मारुं शुद्धस्वरूप जेवुं समज्यो तेवुं
ज सर्वज्ञ परमात्माए अने श्रीगुरुए मने कह्युं हतुं; आ रीते देव–गुरु–शास्त्रोए शुं
स्वरूप समजाव्युं तेनो पण यथार्थ निर्णय थयो.
भेदज्ञान थतां उपयोगे पोताना आत्माने ज पोतामां धारण कर्यो, ए सिवाय
समस्त रागादि अन्य भावोने पोताथी जुदा जाणीने भिन्नता करी. दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूपे परिणमेलो ते उपयोग पोताना आत्माना आनंदबगीचामां ज केलि करे छे.
आत्मा पोते आनंदनो बगीचो छे, तेमां धर्मीनो उपयोग रमे छे.
भेदज्ञान थतां आत्मानो अनुभव थयो, एटले मोहनो नाश थयो, ने
ज्ञानप्रकाश प्रगट थयो. पहेलां हुं अज्ञानी हतो ने हवे हुं ज्ञानी थयो–एम बंने दशामां
सळंग ध्रुवता रही; आ रीते उत्पाद–व्यय–ध्रुव समाई जाय छे.
भेदज्ञान थयुं त्यारे जीवने भान थयुं के–अरे, अज्ञानथी मोहित हतो ते दशा
तो उन्मत्त जेवी हती, उन्मत्तनी माफक जडरूपे (शरीररूपे) पोताने मानतो; पण
विरक्त निर्मोही आत्मज्ञ गुरुओए मने निरंतर मारुं स्वरूप समजावीने भेदज्ञान
कराव्युं.
अहीं ‘गुरुए निरंतर समजाव्युं’ एम कह्युं तेमां खरेखर तो एवो आशय छे
के श्री गुरुए जेवुं परभावथी भिन्न एकरूप आत्मस्वरूप चैतन्यचिह्नथी बताव्युं तेवुं
बराबर लक्षमां लईने, बीजेथी रुचि हठावीने शिष्ये पोते निरंतर अंतर्मुख अभ्यास
करीने अनुभव कर्यो; गुरुए जेवो कह्यो तेवो आत्मा निरंतर अभ्यास वडे
अनुभवमां लीधो, त्यां उपकारबुद्धिथी ते शिष्य कहे छे के अहो! मारा गुरुए मारा
उपर महान प्रसन्नता करीने मने निरंतर मारो आत्मा समजाव्यो. गुरु निरंतर
एना हृदयमां वसे छे एटले गुरु निरंतर तेने समजावी ज रह्या छे. ‘निरंतर
समजाववानुं’ कहीने शिष्यमां निरंतर समजवानी उग्र धगश केवी छे ते बताव्युं छे.
वच्चे भंग पड्या वगर निरंतर अनुभव माटे उद्यम करे छे–एवी शिष्यनी तैयारी छे
त्यां निमित्त तरीके श्री गुरु पण निरंतर ज समजावे छे एम कह्युं. उपदेशनी भाषा
भले निरंतर न होय, पण ते उपदेशमां जे भाव बताव्यो–जे शुद्धात्मा बताव्यो, ते
शिष्यना अंतरमां निरंतर वर्ते छे एटले तेने तो निरंतर गुरु समजावी ज रह्या छे.
आहा! जुओ, आ आत्मअनुभवने माटे शिष्यनो उमंग! ने शिष्यनी तैयारी!
‘निरंतर’ कहीने शिष्यनी