: फागण : २४९प आत्मधर्म : ३७ :
तारा पगले पगले नाथ!
झरे छे आतमरसनी धार
पू. गुरुदेवनी साथे सोनगढथी मुंबई सुधीना आनंदकारी मंगलविहारना
केटलांक मधुर संभारणा अहीं रजु थशे. स्वयं कल्याणकारी, अने कल्याणक
प्रसंगोए विहार करी रहेल गुरुदेवनो प्रभाव कोई अलौकिक छे. ज्यां एमनी
हाजरी होय त्यां नानकडा समवसरण जेवुं वातावरण खडुं थई जाय छे. ठेर ठेर
हजारो जीवो, तेमना उपदेशनुं अंतरंग हार्द समजे के न समजे तोपण, एक कलाक
सतत वहेती अध्यात्मरसधाराना अनेरा वातावरण वच्चे बेसीनेय चित्तनी
अनेरी शांति अनुभवे छे ने प्रभावित थाय छे. ने अंदरनुं हार्द जे समजे–एवा
विरल जीवोनी तो वात अलौकिक छे. आवा प्रभावशाळी गुरुदेवनी साथे ने साथे
रहीने, निरन्तर उपदेश झीलीने तेनुं आलेखन करतां आत्मा कृतार्थता अनुभवे
छे...ने आ रीते ठेठ सिद्धालय सुधी गुरुदेवनी साथे ज रहेवानुं छे. –ब्र. ह. जैन
माह वद छठ्ठ सोनगढ (ता. ८–२–६९) नी वहेली सवारमां विदेहीनाथ
सीमंधरप्रभुना भावथी दर्शन कर्या, त्यारबाद मांगळिक संभळावीने गुरुदेवे कह्युं के आ
आत्माने पंचपरमेष्ठी भगवंतोनुं शरण छे–ते शरण व्यवहारथी छे; निश्चयथी पोतानो
ध्रुवआत्मा ‘पांच बोले पूरो प्रभु’ –ते ज पोतानुं शरण छे. आत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप छे;
ते स्वधर्मथी अभिन्न, अने परद्रव्योथी भिन्न छे तेथी एक छे; एक होवाथी शुद्ध छे,
शुद्ध होवाथी ध्रुव छे; अने ध्रुव होवाथी ते ज शरण छे. आवा आत्माने बीजा कोईनुं
अवलंबन नथी. आवा पांच बोले पूरा प्रभुने जाणीने आत्मस्वभावनुं अवलंबन लेवुं
ते साचुं शरण छे, ते साचुं मंगळ छे, –आवा मंगळपूर्वक गुरुदेवे प्रस्थान कर्युं.
स्वाध्याय मंदिरमांथी बहार नीकळतां पगथिया पासे क्षणवार थंभी गया..ने ऊंचे
नजर करीने दर्शन कर्या. –कोनां? वहाला विदेहीनाथना ऊंचे आकाशमां...मानस्तंभ उपर
बिराजमान सीमंधरनाथना दर्शन करीने मंगलप्रस्थान कर्युं...रस्तामां पण ए ज ‘पांच
भावे पूरा महान आत्मा’ नुं रटण करता करता बोटाद आवी पहोंच्या...त्यां भगवान
श्रेयांसनाथना दर्शन करीने, अने बोटादना भक्तजनोने आनंदित करीने तरत प्रस्थान
कर्युं...थोडीवारे राणपुर आवी पहोंच्या, भक्तोए उमंगथी स्वागत कर्युं...भगवान
महावीरप्रभुनां दर्शन करीने गुरुदेवे मांगळिक संभळाव्युं. बपोरे