Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 45

background image
: फागण : २४९प आत्मधर्म : ५ :
पर्यायार्थिकनयनो विषय. –पण ते बंने परथी तो भिन्न ज छे. आवी सत् वस्तु, तेना
भावोनुं आ वर्णन छे.
* गुरुदेव करुणाथी कहे छे–आत्मानुं स्वरूप समज *
गुरुदेव घणी करुणाथी कहे छे के अरे बापु! वादविवाद छोडीने आवी
आत्मवस्तुना विचारमां ने मंथनमां रहे तो कांईक अपूर्व चीज हाथमां आवशे. भाई,
जीवनना एकेक समयनी मोटी किंमत छे. अरे, मनुष्यभवनो आवो अवसर एमने
एम चाल्यो जाय–तो तेनी शी किंमत? आ मनुष्यभवनी एकेक क्षणमां भवना
अभावनुं कार्य करवानुं छे. कंई भव वधारवा माटे आ मनुष्यअवतार नथी पण
भवनो अभाव करवा माटे आ मनुष्यअवतार छे. जो मनुष्यभव पामीने ते कार्य न
कर्युं तो बीजा भवमां ने आ भवमां शो फेर? अनंतभव चाल्या गया तेम जो आ भव
पण चाल्यो जशे–तो आत्मानुं हित क्यारे करीश? माटे सावधान थईने तारा आत्मानुं
स्वरूप समज.
आत्मा परथी तो अत्यंत जुदो छे एटले पर साथेना कोलाहलनी वात तो
दूर रही, अहीं तो कहे छे के पोतामां एक पर्यायनो भेद पाडीने तेना लक्षे अटके
तोपण आखी वस्तु लक्षमां न आवे. भाई, तारी सत् वस्तु छे ते तारा द्रव्य–
पर्यायरूप छे, परनी साथे तारे कंई संबंध नथी. तारामां जे द्रव्य ने पर्याय सत्
छे तेनी आ वात छे. तेने तुं विचारमां तो ले. तारा पोताना घरनी वस्तुने तुं
लक्षमां तो ले.


हजारो वर्षनां शास्त्रभणतर करतां
एक क्षणनो स्वानुभव वधी जाय छे. जेने
भवसमुद्रथी तरवुं होय तेणे स्वानुभवनी
विद्या शीखवा जेवी छे.