जाय; तेम अनादिथी कषायोमां वर्ततो मिथ्याद्रष्टिजीव प्रथम तो ते कषायोने ठारे छे,
कषायोने तथा मिथ्यात्वने ठारीने एटले के उपशमावीने औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट
करे छे. मिथ्यात्वमांथी सीधुं क्षायिक सम्यक्त्व नथी थतुं, सौथी पहेलां उपशम थाय छे
ने पछी क्षायोपशमिकपूर्वक क्षायिकसम्यक्त्व थाय छे. धर्म करनार जीवने पहेलां
उपशमसम्यक्त्व ज थाय. चारे गतिमां ते थई शके छे; सातमी नरकमां पण
असंख्यातजीवो उपशमसम्यक्त्व त्यां गया पछी नवुं प्रगट करनारा छे. चार गतिमां
कोईपण अनादि मिथ्याद्रष्टिजीव पहेलवेलो निर्विकल्प आत्मअनुभव करे ते
उपशमसम्यक्त्वसहित होय छे, चैतन्यने पकडीने तेणे एटलो पुरुषार्थ कर्यो के मोहने
दाबी दीधो, तेने दर्शनमोहकर्म वर्तमान प्रगट नथी थतुं, तेम ज तेनो सर्वथा क्षय पण
नथी थयो. मिथ्यात्वनी अनुद्भुति ते उपशमसम्यक्त्व छे.
अर्थ तो एवो छे के जीवमां द्रव्यरूपे ते भाव नथी, पण पर्यायरूपे छे. वस्तुमां
द्रव्य ते पर्याय नथी, पर्याय ते द्रव्य नथी. पांच भावोमांथी चार तो पर्यायरूप छे,
ने एक द्रव्यरूप छे.
मोक्षनुं कारण नथी. चार भावो क्रियारूप एटले के उत्पाद–व्ययरूप छे, ने पांचमो
भाव निष्क्रिय छे एटले के एकरूप ध्रुव छे. द्रव्यपर्याय बंने थईने वस्तु छे. द्रव्य ते
निश्चय, पर्याय ते व्यवहार, बंने थईने प्रमाणवस्तु सत्. तेमां द्रव्य ते
द्रव्यार्थिकनयनो विषय, ने पर्याय ते