* श्री कहान–रत्नचिंतामणि–जयंतिमहोत्सव विशेषांक *
: ८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९प
रे! ज्ञान नरने सार छे, सम्यक्त्व नरने सार छे;
सम्यक्त्वथी चारित्र ने चारित्रथी मुक्ति लहे. ३१.
द्रग–ज्ञानथी, सम्यक्त्वयुत चारित्रथी ने तप थकी
–ए चारना योगे जीवो सिद्धि वरे, शंका नथी. ३२
कल्याणश्रेणी साथ पामे जीव समकित शुद्धने;
सुर–असुर केरा लोकमां सम्यक्त्वरत्न पुजाय छे. ३३
रे! गोत्र उत्तमथी सहित मनुजत्वेन जीव पामीने,
संप्राप्त करी सम्यक्त्व, अक्षय सौख्य ने मुक्ति लहे. ३४
चोत्रीस अतिशययुक्त, अष्ट सहस्र लक्षणधरपणे
जिनचंद्र विहरे ज्यां लगी, ते बिंब स्थावर उक्त छे. ३प
द्वादश तपे संयुक्त, निज कर्मो खपावी विधिबळे,
व्युत्सर्गथी तनने तजी, पाम्या अनुत्तम मोक्षने. ३६
स्वानुभूतिपूर्वक थतुं सम्यग्दर्शन ते मोक्षनुं द्वार छे; तेना
वडे ज मोक्षनो मार्ग ऊघडे छे. एनो उद्यम ए ज दरेक मुमुक्षुनुं
पहेलुं काम छे. अने दरेक मुमुक्षुथी आ थई शके तेवुं छे.
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एक क्षणभरना स्वानुभवथी ज्ञानीने जे कर्मो तूटे छे,
अज्ञानीने लाखो उपाय करतां पण एटलां कर्मो तूटतां नथी.
आम सम्यक्त्वनो अने स्वानुभवनो कोई अचिंत्य महिमा छे.
–एम समजीने हे जीव! तेनी आराधनामां तत्पर था.