* श्री कहान–रत्नचिंतामणि–जयंतिमहोत्सव विशेषांक *
: वैशाख : २४९प आत्मधर्म : ७ :
पंचास्तिकाय, छ द्रव्य ने नव अर्थ, तत्त्वो सात छे;
श्रद्धे स्वरूपो तेमनां, जाणो सुद्रष्टि तेहने. १९
जीवादिना श्रद्धानने सम्यक्त्व भाख्युं छे जिने,
व्यवहारथी, पण निश्चये आत्मा ज निज सम्यक्त्व छे. २०.
ए जिनकथित दर्शनरतनने भावथी धारो तमे,
गुणरत्नत्रयमां सार ने जे प्रथम शिवसोपान छे. २१
थई जे शके करवुं अने नव थई शके ते श्रद्धवुं;
सम्यक्त्व श्रद्धावंतने सर्वज्ञ जिनदेवे कह्युं. २२
द्रग, ज्ञान ने चारित्र, तप विनये सदाय सुनिष्ठ जे,
ते जीव वंदनयोग्य छे–गुणधर तथा गुणवादी जे. २३
ज्यां रूप देखी साहजिक, आदर नहीं मत्सर वडे,
संयम तणो धारक भले ते होय पण कुद्रष्टि छे. २४
जे अमरवंदित शीलयुत मुनिओ तणुं रूप जोईने,
मिथ्याभिमान करे अरे! ते जीव द्रष्टिविहीन छे. २प
वंदो न अणसंयत, भले हो नग्न पण नहि वंद्य ते;
बंने समानपणुं धरे, एकके न संयमवंत छे, २६
नहि देह वंद्य, न वंद्य कुल, नहि वंद्य जन जाति थकी;
गुणहीन क्यम वंदाय? ते साधु नथी, श्रावक नथी. २७
सम्यक्त्वसंयुक्त शुद्धभावे वंदुं छुं मुनिराजने,
तस ब्रह्मचर्य, सुशीलने, गुणने तथा शिवगमनने. २८
चोसठ चमर संयुक्त ने चोत्रीस अतिशय युक्त जे,
बहुजीवहितकार सतत, कर्मविनाशकारण–हेतु छे. २९
संयम थकी, वा ज्ञान–दर्शन–चरण–तप छे चार जे
ए चार केरा योगथी, मुक्ति कही जिनशासने. ३०