* श्री कहान–रत्नचिंतामणि–जयंतिमहोत्सव विशेषांक *
: ६ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९प
सम्यक्त्वनीरप्रवाह जेना हृदयमां नित्ये वहे,
तस बद्धकर्मो वालुका–आवरण सम क्षयने लहे. ७
द्रग्भ्रष्ट, ज्ञाने भ्रष्ट ने चारित्रमां छे भ्रष्ट जे,
ते भ्रष्टथी पण भ्रष्ट छे ने नाश अन्य तणो करे. ८
जे धर्मशील संयम–नियम–तप–योग–गुण धरनार छे,
तेनाय भाखी दोष, भ्रष्ट मनुष्य दे भ्रष्टत्वने. ९
ज्यम मूळनाशे वृक्षना परिवारनी वृद्धि नहीं,
जिनदर्शनात्मक मूळ होय विनष्ट तो सिद्धि नहीं. १०
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वळी जाणीने पण तेमने गारव–शरम–भयथी नमे,
तेनेय बोधि–अभाव छे पापानुमोदन होईने. १३
ज्यां ज्ञान ने संयम त्रियोगे, उभयपरिग्रहत्याग छे,
जे शुद्ध स्थितिभोजन करे, दर्शन तदाश्रित होय छे. १४
. १प
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जिनवचनरूप दवा विषयसुखरेचिका, अमृतमयी,
छे व्याधि–मरण–जरादिहरणी, सर्वदुःखविनाशिनी. १७
छे एक जिननुं रूप, बीजुं श्रावकोत्तम लिंग छे,
त्रीजुं कह्युं आर्यादिनुं, चोथुं न कोई कहेल छे. १८