Atmadharma magazine - Ank 307
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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* श्री कहान–रत्नचिंतामणि–जयंतिमहोत्सव विशेषांक *
: वैशाख : २४९प आत्मधर्म : प :
दर्शन प्राभृत
जैनशासनमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे ‘दंसणमूलो
धम्मो” कहीने धर्मनो जे महान मंत्र आप्यो, तेना विवेचनद्वारा
पू. श्री कानजीस्वामी हंमेशां सम्यक्त्वनुं स्वरूप उपदेशीने तेनो
अपार महिमा समजावे छे. एवा सम्यक्त्वना महिमाथी भरपूर
दर्शनप्राभृतनी गाथाओनो गुजराती अनुवाद विद्वान भाईश्री
हिंमतलाल जेठालाल शाहे करेल छे ते अहीं आपवामां आवेल छे.
दर्शनप्राभृत एटले सम्यक्त्वरूपी भेट; गुरुदेवनी
रत्नचिन्तामणि जयंती प्रसंगे सम्यक्त्वरत्ननी उत्तम भेट सौने
गमशे. आपणे एवुं रत्न प्रगट करीए ने तेना वडे गुरुदेवनी
भावस्तुति करीए.
प्रारंभमां करीने नमन जिनवरवृषभ महावीरने,
संक्षेपथी हुं यथाक्रमे भाखीश दर्शनमार्गने.
रे! धर्म दर्शनमूल उपदेश्यो जिनोए शिष्यने;
ते धर्म निज कर्णे सूणी दर्शनरहित नहि वंद्य छे.
द्रग्भ्रष्ट जीवो भ्रष्ट छे, द्रग्भ्रष्टनो नहि मोक्ष छे;
चारित्रभ्रष्ट मुकाय छे, द्रग्भष्ट नहि मुक्ति लहे.
सम्यक्त्वरत्नविहीन जाणे शास्त्र बहुविधने भले,
पण शून्य छे आराधनाथी तेथी त्यां ने त्यां भमे.
सम्यक्त्व विण जीवो भले तप उग्र सुष्ठु आचरे,
पण लक्ष कोटि वर्षमांये बोधिलाभ नहीं लहे.
सम्यक्त्व–दर्शन–ज्ञान बळ–वीर्ये अहो! वधता रहे.
ते अल्प काळे कलेश–मळ–अध टाळी वरज्ञानी बने.