: जेठ : २४९प आत्मधर्म : २३ :
गाथाओनुं विवेचन सांभळ्युं; भेदज्ञाननी रीत सांभळी....देहथी भिन्न चैतन्यमूर्ति
आत्मानुं स्वरूप सांभळ्युं; रागादि परभावोना कर्तृत्व वगरनो ज्ञानस्वभाव
सांभळ्यो....जे सांभळतां ने समजतां आनंद थाय एवा अपूर्व भेदज्ञाननी वात
गुरुदेवे मुंबई नगरीमां संभळावी.
लोकोने आश्चर्य थतुं–अरे! मोहमयी मुंबईनगरीमां आवी वात! हा भाई!
आत्मा क्यां मोहमय छे? आत्मा तो ज्ञानमय छे. मुंबईमां हो के सोनगढमां हो,
विदेहमां हो के भारतमां हो, अमारे तो आ ज्ञानस्वरूप आत्मा ज बताववानो छे. ने
ए ज्ञानस्वरूपनी समजण वडे ज जीवनुं कल्याण छे. वाह! धन्य बनी मुंबईनगरी!
अध्यात्मप्रधान भारतदेशनी अलबेली नगरीनुं गौरव आज सफळ बन्युं. अध्यात्मनी
आवी वात सांभळवानो सुअवसर जीवोने महा भाग्यथी मळे छे. आत्मामां एनुं लक्ष
करतां अपूर्व कल्याण थाय छे, ने एनुं बहुमान करतां पण लोकोत्तर पुण्य बंधाय छे.
गुरुदेवना हृदयमां अने वाणीमां सदाय एनुं ज झरणुं वही रह्युं छे. ए झरणांना मधुर
वीतरागी रसनो स्वाद चाखनार जीव संसारना रस वगरनो ‘अरस’ थईने अमर
पदने पामे छे.