ज्ञान विना शिव ना लहै
अहो, एवुं अनुपम आत्मस्वरूप अंर्त घटमां ज शोभे छे के जेना स्मरण अने
जाप–ध्यानथी भव भवनां दुःख मटी जाय छे.
केवळज्ञान अने केवळदर्शनमां स्थिरतापणे जे पद शोभे छे, अने जेनी उपमा
आपी शकाय एवी कोई वस्तु ५णलोकमां नथी, आवुं अनुपम पद हे जीव! तारा घटमां
विराजे छे.
भले परिषहनो भार सहन करे अने महाव्रत पण पाळे, परंतु आत्मज्ञान
वगर जीव मोक्ष पामतो नथी, ने घणां कर्मो उपार्जे छे.
मोक्षने माटे आवा आत्मस्वरूपना ज्ञान सिवाय बीजो कोई ईलाज
५णकाळ ५णलोकमां नथी, तेथी कवि पोताने संबोधन करीने कहे छे के हे द्यानत!
पोताना स्वार्थ माटे, एटले के आत्महित माटे तुं आवा आत्मस्वरूपने जाण.....के
जे तारा घटमां ज बिराजे छे.
(उपरना अर्थवाळुं अध्यात्मपद पं. श्री द्यानतरायजीए बनावेलुं छे, ते पद
अहीं आपवामां आव्युं छे–)
आतम रूप अनुपम है घट मांहि विराजै।
जाके सुमरन जाप सो, भव भव दुख भाजै हो ।। आतम
० ।। १।।
केवल दरशन ज्ञान मैं, थिरता पद छाजै हो।
उपमाको तिहुं लोक में कोउ वस्तु न राजै हो।। आतम
० ।। २।।
सहै परीषह भार जो, जु महाव्रत साजै होा
ज्ञान बिना शिव ना लहै, बहु कर्म उपाजे हो।। आतम
० ।। ३।।
तिहूं लोक तिहूं काल में नहि और ईलाजैं हो।
द्यानत ताको जानिये, निज स्वारथ काजै हो।। आतम
० ।। ४।।