: पोष : २४९९ आत्मधर्म : १ :
आसो सुधीनुं वीर सं. २४९५
लवाजम प्रथम अषाढ
बे रूपिया
वर्ष: २६ अंक ९
“हुं जन्मने जाणुं नही
सुखथी भरेलो शिव छुं.”
जेठ सुद १२ ना रोज ज्यारे गुरुदेव सीमंधरनाथना दर्शन
करवा आव्या, ने एकचित्ते दर्शन करता हता त्यारे मधुर शब्दो कोने
पड्या के– ‘हुं जन्मने जाणुं नहीं......सांभळतां चमकीने तेमां ध्यान
आप्युं, त्यां विशेषपणे जाणे चैतन्यनुं मधुरगीतगूंजन थतुं होय तेम
संभळायुं के ‘सुखथी भरेलो शिव छुं.’
सीमंधरप्रभुनी पूजा चाली रही हती. तेमां आ आत्मरस
भीनी कडी भावभीनाचित्ते बोलाती हती–
“विमुक्त छुं, निवृत्त छुं, हुं सिद्ध छुं ने ब्रह्म छुं ;
हुं जन्मने जाणुं नहीं, सुखथी भरेलो शिव छुं.”
ए सांभळ्या पछी एक कलाक सुधी गुरुदेवने अंदरमां एनी
ज धून चाली; ने प्रवचननी शरूआतमां ज शुद्धात्माना वर्णन साथे
खूब भावथी गायुं के–
“हुं जन्मने जाणुं नहीं, सुखथी भरेलो शिव छुं.”
सभा स्तब्धपणे सांभळी रही. गुरुदेवे कह्युं: ‘हुं जन्मने जाणुं
नहीं” हुं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा, मारामां परभाव नथी, मने जन्म–
मरण नथी; अविनाशी स्वरूप हुं आत्मा सुखथी भरेलो शिव छुं
एटले कल्याणरूप छुं. आवा आत्माने लक्षमां लेवो ते भगवाननी
खरी पूजा–स्तुति छे.
फरी फरीने गुरुदेव कहे छे के ‘अहा! हुं तो आनंदथी भरेलो
चैतन्यपिंड छुं; आनंदना धाममां जन्म मरण केवा? हुं जन्मने
जाणतो नथी, जन्मरहित एवो मारो सुखथी भरेलो आत्मा तेने हुं
जाणुं छुं. आवा आत्मानी भावना करवा जेवी छे.