Atmadharma magazine - Ank 308a
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : प्र. अषाड : २४९प
पाछुं वहाण उपर ज आवीने बेसे छे. तेम मधदरिया जेवो आ संसारसमुद्र, तेमां
जीवने पोताना धु्रव शुद्ध स्वभाव सिवाय अन्य कोई शरणरूप नथी, बधा संयोगो
अधु्रव अने भिन्न छे. आवी भिन्नता जाणतो धर्मी पोताना स्वभावनुं ज अवलंबन
ल्ये छे; फरी फरीने तेनी परिणति पोताना स्वरूपनी सन्मुख थाय छे. कोई शुभाशुभ
कर्मोदयअनुसार लक्ष्मी–शरीर–अनूकुळ–प्रतिकूळसंयोगो हो भले, पण धर्मी तेने पोताथी
अत्यंत भिन्न ज देखे छे; पोताने तो ज्ञानदर्शनस्वरूप अतीन्द्रिय महान पदार्थ तरीके
पोतामां अनुभवे छे. –आवा आत्माने अनुभव करे तेने ज मोहनो नाश थाय, ने तेने
ज मुनिपणुं तथा केवळज्ञान अने परमसुख प्रगटे.
आत्मानुं सुख
आत्माना स्वभावमां सहज सुख छे. बहारमां आनंद न
होवा छतां कल्पनाथी तेमां जे आनंद माने छे–ते पोते आनंदस्वरूप
छे. पोतानो आनंद पोतामां भर्यो छे पण पोताना आनंदने भूल्यो
एटले तेनो आरोप बीजामां कर्यो के ‘आमां मारो आनंद छे.’ –पण
ए आरोप मिथ्या छे–खोटो छे.
‘परमां मारुं सुख’ –एनो अर्थ ए थयो के आत्मा अहीं ने
तेनुं सुख क्यांक बीजे, एटले आत्मा अने सुख बंने जुदा ज ठर्या;
सुख ते आत्मानो स्वभाव न रह्यो! पण भाई, एवो (सुख
वगरनो) आत्मा न होय. आत्मा तो सुखस्वरूप छे. आत्मा
आनंदथी खाली नथी, आत्मा पोताना आनंदथी भरेलो छे. एनुं
भान करतां आनंदना स्वादनुं वेदन थाय छे.