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कठिन कठिनसे मित्र! जन्म मानुषका लिया.
ताहि वृथा मत खोय, जोय आपा–पर भाई,
गये न मिलती फेर समुद्रमें डुबी राई.
वीर सं. २४९५ द्वि. अषाड (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २६: अंक ९
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[
पुस्तक छपाय छे. तेमांथी थोडोक नमूनो अहीं आप्यो छे.
भोगव्यां, माटे हवे तो ते मिथ्यात्वादिने छोड... छोड. आ उत्तम अवसर तने मळ्यो छे.
कारणोथी तुं पाछो वळ, ने वीतरागविज्ञान प्रगट कर.
मनुष्यपणामांय नहि चेत, तो पछी क््यारे चेतीश?
समजावीने संसारदुःखथी छोडावे छे.
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अमल अरूपी अज चेतन चमतकार, समैसार साधे अति अलख अराधिनी,
गुणको निधान अमलान भगवान जाको प्रत्यक्ष दिखावे जाकी महिमा अबाधिनी,
एक चिद्रूपको अरूप अनुसरे ऐसी, आतमीक रुचि है अनंत सुखसाधिनीाा६ाा
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वैराग्यभावनानो उपदेश
विशेष ऊपडे छे. प्रतिकूळता आवे त्यां आर्त्तध्यान न करे पण स्वभाव तरफ झुके
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करे. मुख्यपणे मुनिने संबोधन कर्युं छे परंतु मुनिनी जेम श्रावकने पण आ
उपदेश लागु पडे छे. हे जीव! सम्यग्दर्शननी निर्मळता प्रगट करी, संसारने असार
जाणी, अंतर्मुख थईने सारभूत एवा चैतन्यनी भावना भाव. वैराग्यना प्रसंगे
जागेली भावनाओने याद करीने एवी भावशुद्धी कर के जेथी तारा रत्नत्रयनी
परम शुद्धता थईने केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय. सार शुं अने असार शुं एने
ओळखीने तुं सारभूत आत्मानी भावना कर.
थई जवानी जे भावना हती, जाणे के ते चैतन्यना आनंदमांथी कदी बहार ज न
आवुं–एवो जे वैराग्यनो रंग हतो, ते विरकतदशानी धारा तुं टकावी राखजे. जे
संसारने छोडतां पाछुं वाळीने जोयुं नहि, वैराग्यबळे क्षणमात्रमां संसारने छोडी
दीधो, तो हवे आहारादिमां क््यांय राग करीश नही, प्रतिकूळताना गंजमांय तारी
वैराग्यभावनामां विध्न करीश नहि. आ प्रमाणे जेणे आत्माने साधवो छे तेणे
आखा संसारने असार जाणी परम वैराग्यभावनाथी सारभूत चैतन्यरत्ननी
भावनावडे सम्यग्दर्शनादिनी शुद्धता प्रगट करवी. भाई! परभावोथी पाछो वळीने
तुं तारा चैतन्यमां वळ... एमां परम शांति छे; प्रतिकूळतानो के परभावनो तेमां
प्रवेश नथी. तारा असंख्यप्रदेशे वैराग्यनी सीतारने झणझणावीने तुं आत्मानी
आराधनामां द्रढ रहेजे. कोई महान प्रतिकूळता, अपजश वगेरे उपद्रव प्रसंगे
जागेली उग्र वैराग्यभावनाने अनुकूळता वखते पण जाळवी राखजे. अनुकूळतामां
वैराग्यने भूली जईश नहि; तेमज प्रतिकूळताना गंजथी डरीने पण तारी
वैराग्यधाराने तोडीश नहीं. अशुद्धभावोने सेवीने अनंतकाळ संसारभ्रमण कर्युं,
माटे हवे तो ते भाव छोड... ने आत्मशुद्धि प्रगट कर.
पण पुरुषार्थनी प्रबळताथी वैराग्य वधारीने सम्यग्दर्शनज्ञान–चारित्रनी उग्र
आराधनावडे अल्पकाळमां केवळज्ञान ल्ये छे. आ रीते हरेक प्रसंगे वैराग्यने पुष्ट करी
आराधनानुं जोर वधारीने रत्नत्रयनी शुद्धतारूप भावशुद्धिनो उपदेश छे.
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बंने एक नथी पण भिन्न छे. उपयोग तो आत्मा छे, पण क्रोधादि ते खरेखर आत्मा
नथी. आ रीते क्रोधादिथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो, श्रद्धा करवी,
ते भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; ते धर्म छे.
न रहे पण उपयोग वगरनो अजीव थई जाय. आत्मा तो सदा उपयोगस्वरूप छे; तेने
शरीरादि जडथी तो भिन्नता छे, ने क्रोधादि आस्रवोथी पण भिन्नता छे. क्रोधादि भावो
जो के जीवनी विकारी अवस्था छे, पण ते ज्ञानमयभाव नथी; ज्ञानने अने ते क्रोधादिने
एकता नथी, बंनेनुं स्वरूप तद्रन जुदुं छे.
एकता छे, केमके उपयोग तेनुं स्वरूप ज छे; पण उपयोगनी माफक अन्य जड पदार्थो साथे
पण जो आत्माने एकता होय तो आत्मा पोते जड थई जाय, जीवनुं जीवपणुं न रहे
एटले के ते अजीव थई जाय; पछी ‘आ जीव ने आ अजीव’ एवो कोई भेद जगतना
पदार्थोमां रहे नहिं; अने जीव–अजीवनी भिन्नताना भान वगर धर्म पण थाय नहीं.
उपयोग नथी तेम जडकर्मो के शरीरादि ते पण उपयोग नथी; ते उपयोगथी शून्य एवा
अचेतन छे, अहा, परभावोथी भिन्न आवो पोतानो आत्मा–तेने अंतरमां
उपयोगस्वरूपे अनुभवमां ल्यो. ‘आत्मउपयोग’ वडे अनुभवमां आवे छे; रागवडे ते
अनुभवमां न आवे.
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तेनो प्रेम करता नथी. भाई, तुं बहारनी वात सारी लगाडे छे तेने बदले तारो
उपयोगस्वरूप आत्मा ज सारो लगाड. आनंदकंद आत्मामां एक विकल्पनो अंश पण
नथी; एक शुभ विकल्पने (–भले ते विकल्प वीतराग भगवान तरफनो होय–तेने)
पण जे आत्मानुं स्वरूप माने छे, के तेनाथी मोक्षमार्गनो लाभ थवानुं माने छे, तेणे
उपयोगस्वरूप आत्माने जाण्यो नथी, ते रागादिने ज आत्मा माने छे, खरेखर ते जडने
आत्मा माने छे; केमके राग ते चेतननी जात नथी. ज्ञानथी विरुद्ध जेटला भावो छे तेने
जे आत्माना उपयोग साथे एकमेक माने छे तेने जड–चेतननी भिन्नतानुं भान नथी,
एटले भेदज्ञान नथी.
भेळवता नथी. एककोर उपयोगस्वरूप आतमराम; अने सामे बधा रागादिभावो ने
जड पदार्थो–ते उपयोगथी जुदा;–आवुं अत्यंत भेदज्ञान करतांवेंत बंधभावना कोई पण
अंशमां जीवने एकत्वबुद्धि–हितबुद्धि के प्रेमबुद्धि रहेती नथी; एकला पोताना
उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्माने ज एकत्वबुद्धिथी–हितबुद्धिथी–प्रेमबुद्धिथी अनुभवे छे.
आवो आत्मअनुभव ते मोक्षमार्ग छे.
चूरमाने भेळसेळ करीने खाय छे तेम तुं पण अज्ञानथी घास जेवा रागादिने अने
चूरमा जेवा उपयोगने भेळसेळ एकमेक मानीने अशुद्धतानो स्वाद ल्ये छे, ते अविवेक
छे. भाई, अंदरमां रागथी भिन्न तारा चैतन्यस्वादने ओळख, तेना अनुभवथी तने
रागादि परभावोथी आत्मानुं अत्यंत भिन्नपणुं देखाशे.
जडपणुं छे ने चेतननुं सदाय चेतनपणुं छे. हवे ते उपरांत अहीं तो जे रागादि–क्रोधादि
भावो छे ते पण जीवना उपयोगस्वभावथी जुदा होवाथी तेमने अचेतनपणुं छे. –आ
रीते अंदरना सूक्ष्मभेदज्ञाननी वात छे. आवुं भेदज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे.
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विविध ज्ञान साथे ईनामी योजनावाळा आ प्रश्नो सौने खूब गम्या छे; बाळको
(२) वीसमाबा करतीर्थं नानेमिथ नारगीरथी मोक्ष पाम्या.
(३) रमवीहा नभवाग पापुवारीथी मोक्ष पाम्या.
(४) ढगमांनसो ३६ फूट ऊंचो नभमास्तं छे.
(५) ‘मोन हंणंअरिता’ –ए महामंत्र छे.
(६) रमसायस शास्त्रमां ५१४ ओथागा छे.
(७) आत्मा स्वनभावीज्ञा वस्तु छे.
(८) नोजीव मोक्ष वीगीरात थीरत्रयत्न थाय छे.
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मुंबई–चेम्बुरमां आपणा उत्साही सभ्य शैलाबेन चंद्रकांत जैननो एक
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अंकमां आपीए छीए. बाळकोने
घणीवार ‘वानरसेना’ कहेवाय छे. परंतु
एक वानरनो आत्मा पण पोतानी
ऊंची भावना वडे भगवान थई शके छे,
–ते वात तमने आ वार्ता कहेशे.
जो के पूर्व भवमां तो ते मनुष्य
समजण करी नहि ने घणा माया–कपट
कर्या, तेथी ते मरीने वांदरो थयो.
एक झाड परथी बीजा झाड पर कुदाकूद करे.
छम छम करतां छलांग मारे, ने हूक हूक करतां बीवडावे.
राजानुं नाम वज्रजंघ, अने राणीनुं नाम श्रीमती.
ते मुनि पण ते वनमां ज आवी चडया.
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ने भक्तिथी आहारदान दीधुं.
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त्यारे मुनिए कह्युं के हे राजा! आ वांदरो पूर्वभवमां नागदत्त नामनो
वळी मुनिओए कह्युं:–
हे राजा! जेम आ भवमां अमे तमारा पुत्रो हता, तेम आ वांदरो पण
अहा, मुनिना मुखथी ए
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आनंद मनावशुं... ने आत्माने जगाडशुं.
जैनधर्ममां क्रिया छे?
हा; मोक्षनी साची क्रिया जैनधर्ममां ज छे.
तमे क्रियाने मानो छो?
जी हा, राग वगरनी जे मोक्षनी क्रिया छे तेने मोक्षनी क्रिया तरीके मानीए
माने छे, मोक्षनी (धर्मनी) क्रियाने ते ओळखता नथी.
* आत्मा जडनो कर्ता केम नथी? ... केमके आत्मा जड नथी.
* जडनो कर्ता कोण होय? ... जे जड होय ते.
* कर्ता अने तेनुं कर्म बंने एक जातिनां होय, विरुद्ध जातनां न होय.
* चेतननुं कार्य चेतन; जडनो कर्ता जड.
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अंक ३०४, ३०६ तथा ३०८
बुधजनजीनी आ छहढाळा वांचीने पं. दौलतरामजीए छहढाळा रची छे.
अहीं कहुं छुं (१)
तेना मनमां तत्त्वार्थश्रद्धानमां शंका नथी;
(२–३–४–५)
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आ प्रमाणे शंकादि आठ दोष, आठ
जेने आवो निर्मळभाव प्रगट्यो छे
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विशेष प्रिय एवो कर्ताकर्म–अधिकार, तेनां प्रवचनोमांथी
८० प्रश्नोत्तरनी आ भेदज्ञान–पुष्पमाळाना ४६ प्रश्नोत्तर
छेल्ला बे अंकमां आपे वांच्या; बाकीना अहीं रजु थाय
छे. (सं.)
हा, सिद्धभगवंतो पुण्य वगर ज आनंदसहित जीवी रह्या छे. मुनिओ
पण ज्यारे शुभोपयोग छोडीने शुद्धोपयोगमां लीन थाय छे त्यारे परम
आनंदने अनुभवे छे. ते प्रकारनो थोडोक अनुभव चोथागुणस्थानवर्ती
गृहस्थनेय थई शके छे. पुण्य के शुभराग ते कांई आत्मानुं जीवन नथी,
ते कांई आत्माना प्राण नथी; चैतन्यभाव ते ज आत्मानुं जीवन छे, ते
ज प्राण छे.
जे कोई जीवो समजे तेमने लाभ थाय.
ना.
ज्ञानने तो रागनी निवृत्ति साथे अविनाभाव छे. साचुं भेदज्ञान तो
रागथी पाछुं वळेलुं छे. रागना कर्तृत्वमां रोकायेलुं ज्ञान ते साचुं ज्ञान
नथी, अज्ञान छे.
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(५१)
ज्ञान अने रागनी भिन्नता लक्षमां लेवी.
भेदज्ञान थतां ज्ञान आस्रवोथी नीवर्ते छे.
आस्रवोथी नीवर्तवुं एटले ज्ञानस्वभाव तरफ झूकवुं; ज्ञान ज्ञानमां ज
एकत्वपणे वर्ते ने रागादिमां एकत्वपणे न वर्ते, ते आस्रवोथी नीवर्त्युं
कहेवाय.
ते अज्ञान कहेवाय.
ज्ञानीनो ज्ञानभाव राग के बंध वगरनो छे; ते मोक्षनुं कारण छे.
साचा निर्णयना अभ्यासथी मिथ्यात्वनो रस मंद पडतो जाय छे. विकल्प
जाय छे. विकल्प उपर जोर न देतां ज्ञान उपर जोर देवुं.
जेने जाणवाथी जरूर मुक्ति थाय ते जैनशासन.
आत्माना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावने शुद्धनयथी जे देखे ते समस्त
ना, राग ते जैनशासन नथी, तेमज एकला राग तरफनुं ज्ञान ते पण
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(६०)
अंतर्मुख भावश्रुतज्ञान वडे जे आ भगवान शुद्ध आत्मानी अनुभूति
पदार्थोनुं स्वरूप ओळखवा माटे जिनशासनमां कथन तो बधुंय आवे,
एकला रागने अने निमित्तो वगेरेने ज जाणवामां रोकाय, पण शुद्ध
चैतन्यतत्त्व तो अंतर्मुख छे अने रागादि भावो तो बहिर्मुख छे, तेमने
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(६४) धर्मलब्धिनो काळ क््यारे?
धर्मलब्धि छे. धर्म करनार जीव काळ सामे जोईने बेसी रहेतो नथी पण
पोताना स्वभावमां अंतर्मुख थाय छे, ने स्वभावमां अंतर्मुख थतां पांचे लब्धि
एक साथे आवी मळे छे. स्वभावमां अंतर्मुख थाय ने धर्मलब्धिनो काळ न
होय एम बने नहि.
अने अजीव द्रव्योने अत्यंत भिन्नता छे, तेम चैतन्यभावने अने रागादि भावोने
पण अत्यंत भिन्नता छे, बंनेनी जात ज जुदी छे. –आवुं अंतरनुं भेदज्ञान ते
कोई शुभराग वडे थतुं नथी पण चैतन्यना ज अवलंबने थाय छे. भेदज्ञान ते
अंतरनी चीज छे, ए कोई बहारना भणतरनी के शुभरागनी चीज नथी.
आवुं भेदज्ञान होय–एवुं कोई भेदज्ञाननुं माप नथी. अंतरना वेदनमां जेणे
चैतन्यने अने रागने भिन्न जाण्या, ने उपयोगने रागथी छूटो पाडीने चैतन्यमां
वाळ्यो ते जीव भेदज्ञानी छे; शास्त्रोए जेवी ज्ञान अने रागनी भिन्नता बतावी
छे तेवी परिणतिरूपे ते धर्मात्मानुं साक्षात् परिणमन थयुं छे.
केम थाय? रागनो जेमां अभाव छे एवा चैतन्यना अवलंबने ज रागनुं ने
ज्ञाननुं भेदज्ञान थाय छे.
ने व्यवहारतो पराश्रित रागभाव छे, तेना आश्रये भेदज्ञान थतुं नथी, तेना