Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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३०९
सुख–दुःख पूर्वविपाक अरे! मत कंपे जीया,
कठिन कठिनसे मित्र! जन्म मानुषका लिया.
ताहि वृथा मत खोय, जोय आपा–पर भाई,
गये न मिलती फेर समुद्रमें डुबी राई.
***
संसारमां सुख के दुःख ते तो पूर्वकर्मना विपाक
अनुसार थाय छे, माटे अरे जीव! तेमां तुं डर मा. घणी
कठिनताथी आ मनुष्यजन्म प्राप्त थयो छे – तो हे मित्र!
तेने तुं नकामो न गुमावीश; हे भाई! नरभवमां तुं स्व–
परनी ओळखाण कर; केमके जेम समुद्रमां डुबेलो राईनो
दाणो फरी मळवो मुश्केल छे तेम आ मनुष्यजन्म वीती
गया पछी फरी मळवो मुश्केल छे.
– बुधजन पंडित
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९५ द्वि. अषाड (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २६: अंक ९

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वीतरागविज्ञाननी प्रसादी

[
छहढाळा उपर पू. गुरुदेवनां प्रवचनो वीतरागविज्ञानना छ पुस्तकरूपे
प्रकाशित थई रह्या छे, पहेलुं पुस्तक प्रगट थई गयेलुं छे. (किंमत पचास पैसा) बीजुं
पुस्तक छपाय छे. तेमांथी थोडोक नमूनो अहीं आप्यो छे.
]
जयां–ज्यां सम्यग्दर्शनादि छे त्यां ज सुख छे अने जयां–ज्यां मिथ्यात्वादि छे त्यां
दुःख ज छे;–पछी नरक हो के स्वर्ग हो. तिर्यंचमां के नरकमां, स्वर्गमां के मनुष्यमां, –बधे
ठेकाणे दुःखनुं कारण तो जीवना मिथ्यात्वादि भाव ज छे. कर्म तो मात्र निमित्त छे, जीवथी
ते भिन्न छे. भाई! तारा ऊंधा भाव अनुसार कर्म बंधायु एटले रखडवानुं खरूं कारण
तारो ऊंधो भाव ज छे; ते ऊंधो भाव छोड तो तारुं परिभ्रमण मटे. सम्यग्दर्शन वगर
जीवनुं परिभ्रमण कदी टळे नहीं. भाई, मिथ्यात्वने लीधे जन्म–मरणनां घणां दुःखो तें
भोगव्यां, माटे हवे तो ते मिथ्यात्वादिने छोड... छोड. आ उत्तम अवसर तने मळ्‌यो छे.
शुभरागथी स्वर्ग मळे, पण शुभरागथी कांई आत्माना सम्यग्दर्शनादि गुण न
मळे. राग ते दोष छे, ते दोष वडे गुणनी प्राप्ति केम थाय? मिथ्यात्व अने रागद्वेष ते
पोते दुःख छे, तेनुं फळ दुःख छे. तो ते मोक्षसुखनुं कारण केम थाय? – न ज थाय.
वीतरागविज्ञान ते सुख ने रागद्वेष–अज्ञान ते दुःख, आम जाणीने हे जीव! दुःखना
कारणोथी तुं पाछो वळ, ने वीतरागविज्ञान प्रगट कर.
***
पोते पोताना चैतन्यप्रभुने देखवानी दरकार ज जीव क््यां करे छे? नवरो होय,
कांई काम न होय तोपण कांईक धर्मना वांचन–विचारने बदले मफतनो पारकी चिन्ता
कर्यां करे छे. पार वगरनी पारकी चिन्तामां व्यर्थ काळ गुमावे छे पण आत्माना हितनी
चिन्ता करतो नथी अरे! शुं हजी तने भवनां दुःखनो थाक नथी लागतो? भाई! आ
मनुष्यपणामांय नहि चेत, तो पछी क््यारे चेतीश?
संसारमां भमतां जीवे रौ–रौ नरकनां दुःखो पण भोगव्यां ने स्वर्गमां देव थईने
त्यां पण दुःख ज भोगव्युुं; पाप अने पुण्य एवा कषायचक्रमांथी बहार नीकळीने ते
सम्यग्दर्शनादि वीतरागभावमां ते कदी न आव्यो. अहीं आचार्यदेव वीतरागविज्ञान
समजावीने संसारदुःखथी छोडावे छे.
आवी शैलीना सुगम उपदेश माटे वीतरागविज्ञान–पुस्तको वांचो.
***

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १ :
आसो सुधीनुं वीर सं. २४९प
लवाजम द्वितीय अषाढ
वर्ष २६ : अंक ९
आत्मिकरुचि है अनंत सुखसाधिनी
परम अखंड ब्रहमंड विधि लखे न्यारी, करम विहंड करे महा भवबाधिनी,
अमल अरूपी अज चेतन चमतकार, समैसार साधे अति अलख अराधिनी,
गुणको निधान अमलान भगवान जाको प्रत्यक्ष दिखावे जाकी महिमा अबाधिनी,
एक चिद्रूपको अरूप अनुसरे ऐसी, आतमीक रुचि है अनंत सुखसाधिनीाा६ाा
आत्मिक रुचि अनंत सुखने साधनारी छे; – केवी छे ते
रुचि? परम अखंड चैतन्य ब्रह्मने ते कर्मथी भिन्न देखे छे, कर्मने
खंड खंड करी नांखे छे, भवभ्रमणनी अत्यंत बाधक छे अर्थात्
भवभ्रमणने रोकनारी छे, निर्मळ अरूपी अविनाशी चैतन्य
चमत्कारने देखनारी छे, शुद्ध आत्मारूप समयसारने अत्यंतपणे
साधनारी छे, ने अलख–अतीन्द्रिय चैतन्यने आराधनारी छे; गुणनो
निधान अने संकोचरहित एवो जे भगवान आत्मा तेने ते प्रत्यक्ष
देखाडनारी छे, ते आत्म–रुचिनो महिमा अबाध्य छे, –कोईथी ते
बाधित थतो नथी. अने ते रुचि एक अरूपी चैतन्यस्वरूपने ज
अनुसरनारी छे. – आवी आत्मरुचि अनंत सुखने साधनारी छे.
(कवि दीपचंदजी शाह रचित ज्ञानदर्पमांथी)

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: २ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
रत्नत्रयनी शुद्धि माटे द्रढ
वैराग्यभावनानो उपदेश
[असंख्य प्रदेशे वैराग्यनी सीतारने झणझणावीने
आत्मानी आराधनामां द्रढ रहेजे]
* * *
भावप्राभृत गा. ११० मां परम वैराग्यनो उपदेश आपतां श्री कुंदकुंद प्रभु कहे
छे के हे जीव! तें संसारने असार जाणीने स्वरूपने साधवा माटे ज्यारे वैराग्यथी
मुनिदीक्षा लीधी ते वखतना तीव्र वैराग्यने उत्तमबोधि निमित्ते तुं याद कर... फरी फरी
तेनी भावना भाव. विशुद्ध चित्तथी एटले के सम्यग्दर्शनादि निर्मळ परिणाम सहित
थईने तुं उत्कृष्ट वैराग्यनी भावना कर. मुनिपणानी दीक्षा वखते आखा जगतथी उदास
थईने स्वरूपमां ज रहेवानी केवी उग्र भावना हती! –जाणे के स्वरूपथी बहार हवे कदी
आववुं ज नथी. आवा उत्तम प्रसंगे जागेली वैराग्यभावनाने हे जीव! फरी फरीने तुं
तारा रत्नत्रयनी विशुद्धिने अर्थे भाव.
चिदानंद स्वभावने ज जेणे सार जाण्यो अने संसारने असार जाण्यो ते
जीव चैतन्यनी ऊंडी भावना वडे भावशुद्धि (सम्यग्दर्शनादि) प्रगट करे छे.
चिदानंद स्वभाव पवित्र छे तेनी भावनाथी कषायो नष्ट थईने सम्यग्दर्शनादि
पवित्र भाव प्रगटे छे. चैतन्यने साधवा माटे जे वैराग्यधारा उल्लसी, के रोगना
काळे के बीजा वैराग्यप्रसंगे जे वैराग्य भावना जागी, अथवा मरण जेवो प्रसंग
आवी पडतां जेवी वैराग्यभावना होय एवा वैराग्यने तुं सदाय निरंतर ध्यानमां
राखीने वारंवार तेने भावजे, ए वैराग्यभावनाने वारंवार घूंटजे, वैराग्यने
शिथिल थवा दईश मा. शुद्धभावे आत्मानी जे आराधना उपाडी तेने जीवनपर्यंत
निर्वहन करजे. आराधक जीवने तीव्र रोग वगेरे प्रतिकूळ प्रसंगे वैराग्यनी धारा
विशेष ऊपडे छे. प्रतिकूळता आवे त्यां आर्त्तध्यान न करे पण स्वभाव तरफ झुके
ने तीव्र वैराग्य वडे शुद्धतानी धाराने उल्लसावीने रत्नत्रयनी आराधनाने पुष्ट

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ३ :
करे. मुख्यपणे मुनिने संबोधन कर्युं छे परंतु मुनिनी जेम श्रावकने पण आ
उपदेश लागु पडे छे. हे जीव! सम्यग्दर्शननी निर्मळता प्रगट करी, संसारने असार
जाणी, अंतर्मुख थईने सारभूत एवा चैतन्यनी भावना भाव. वैराग्यना प्रसंगे
जागेली भावनाओने याद करीने एवी भावशुद्धी कर के जेथी तारा रत्नत्रयनी
परम शुद्धता थईने केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय. सार शुं अने असार शुं एने
ओळखीने तुं सारभूत आत्मानी भावना कर.
दीक्षा लेती वखतना उग्र वैराग्यप्रसंगने याद करावीने आचार्य देव कहे छे
के अहा! दीक्षा वखते जगतथी परम निस्पृह थईने शांत चैतन्यदरियामां लीन
थई जवानी जे भावना हती, जाणे के ते चैतन्यना आनंदमांथी कदी बहार ज न
आवुं–एवो जे वैराग्यनो रंग हतो, ते विरकतदशानी धारा तुं टकावी राखजे. जे
संसारने छोडतां पाछुं वाळीने जोयुं नहि, वैराग्यबळे क्षणमात्रमां संसारने छोडी
दीधो, तो हवे आहारादिमां क््यांय राग करीश नही, प्रतिकूळताना गंजमांय तारी
वैराग्यभावनामां विध्न करीश नहि. आ प्रमाणे जेणे आत्माने साधवो छे तेणे
आखा संसारने असार जाणी परम वैराग्यभावनाथी सारभूत चैतन्यरत्ननी
भावनावडे सम्यग्दर्शनादिनी शुद्धता प्रगट करवी. भाई! परभावोथी पाछो वळीने
तुं तारा चैतन्यमां वळ... एमां परम शांति छे; प्रतिकूळतानो के परभावनो तेमां
प्रवेश नथी. तारा असंख्यप्रदेशे वैराग्यनी सीतारने झणझणावीने तुं आत्मानी
आराधनामां द्रढ रहेजे. कोई महान प्रतिकूळता, अपजश वगेरे उपद्रव प्रसंगे
जागेली उग्र वैराग्यभावनाने अनुकूळता वखते पण जाळवी राखजे. अनुकूळतामां
वैराग्यने भूली जईश नहि; तेमज प्रतिकूळताना गंजथी डरीने पण तारी
वैराग्यधाराने तोडीश नहीं. अशुद्धभावोने सेवीने अनंतकाळ संसारभ्रमण कर्युं,
माटे हवे तो ते भाव छोड... ने आत्मशुद्धि प्रगट कर.
धर्मात्मा प्रतिकूळताथी घेराई जता नथी, परिणाम बगडवा देता नथी, पण तेवा
प्रसंगे उजवळभावथी वैराग्यनी धारा उपाडे छे. प्रतिकूळता वखते आर्त्तध्यान न करे
पण पुरुषार्थनी प्रबळताथी वैराग्य वधारीने सम्यग्दर्शनज्ञान–चारित्रनी उग्र
आराधनावडे अल्पकाळमां केवळज्ञान ल्ये छे. आ रीते हरेक प्रसंगे वैराग्यने पुष्ट करी
आराधनानुं जोर वधारीने रत्नत्रयनी शुद्धतारूप भावशुद्धिनो उपदेश छे.

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: ४ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
उपयोगस्वरूप आत्मा
भाई! तुं बहारनी वात सारी लगाडे छे तेने बदले आत्मा ज सारो लगाड.
(समयसार गा. ११३ थी ११५ उपरनां प्रवचनमांथी)
जेने भेदज्ञान होय तेने धर्म थाय छे. भेदज्ञान केवुं छे तेनुं आ वर्णन चाले छे.
आत्मा उपयोगस्वरूप छे; उपयोगस्वरूप आत्मा क्रोधरूप नथी. उपयोग अने क्रोध ए
बंने एक नथी पण भिन्न छे. उपयोग तो आत्मा छे, पण क्रोधादि ते खरेखर आत्मा
नथी. आ रीते क्रोधादिथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो, श्रद्धा करवी,
ते भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; ते धर्म छे.
आवुं भेदज्ञान जेने नथी तेने धर्म नथी. क्रोधादिमां उपयोगपणुं नथी तेथी तेने
जड कह्या छे. जो आत्मा क्रोधमय थई जाय तो तेने उपयोगपणुं न रहे, एटले ते जीव
न रहे पण उपयोग वगरनो अजीव थई जाय. आत्मा तो सदा उपयोगस्वरूप छे; तेने
शरीरादि जडथी तो भिन्नता छे, ने क्रोधादि आस्रवोथी पण भिन्नता छे. क्रोधादि भावो
जो के जीवनी विकारी अवस्था छे, पण ते ज्ञानमयभाव नथी; ज्ञानने अने ते क्रोधादिने
एकता नथी, बंनेनुं स्वरूप तद्रन जुदुं छे.
सर्वज्ञभगवाने उपयोगस्वरूप आत्मा जेवो जोयो अने पूर्ण साध्यो तेवो ज
वाणीद्वारा दर्शाव्यो छे. बधाय आत्माओ उपयोगस्वरूप छे. उपयोग साथे जीवने त्रिकाळ
एकता छे, केमके उपयोग तेनुं स्वरूप ज छे; पण उपयोगनी माफक अन्य जड पदार्थो साथे
पण जो आत्माने एकता होय तो आत्मा पोते जड थई जाय, जीवनुं जीवपणुं न रहे
एटले के ते अजीव थई जाय; पछी ‘आ जीव ने आ अजीव’ एवो कोई भेद जगतना
पदार्थोमां रहे नहिं; अने जीव–अजीवनी भिन्नताना भान वगर धर्म पण थाय नहीं.
सर्वज्ञभगवाने अतीन्द्रियज्ञानवडे आखुं विश्व प्रत्यक्ष जोयुं, तेमां आत्मा सदाय
उपयोगस्वरूप जोयो छे. उपयोगने अने क्रोधादिभावोने भेळसेळपणुं नथी. जेम क्रोध ते
उपयोग नथी तेम जडकर्मो के शरीरादि ते पण उपयोग नथी; ते उपयोगथी शून्य एवा
अचेतन छे, अहा, परभावोथी भिन्न आवो पोतानो आत्मा–तेने अंतरमां
उपयोगस्वरूपे अनुभवमां ल्यो. ‘आत्मउपयोग’ वडे अनुभवमां आवे छे; रागवडे ते
अनुभवमां न आवे.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ५ :
जीवोने बहारनी वात सारी लागे छे, ने तेमां रागादि करीने रोकाई जाय छे;
पण ते रागादिथी पार उपयोगस्वरूप आत्मा अंदरमां शुं चीज छे ते लक्षमां लेता नथी.
तेनो प्रेम करता नथी. भाई, तुं बहारनी वात सारी लगाडे छे तेने बदले तारो
उपयोगस्वरूप आत्मा ज सारो लगाड. आनंदकंद आत्मामां एक विकल्पनो अंश पण
नथी; एक शुभ विकल्पने (–भले ते विकल्प वीतराग भगवान तरफनो होय–तेने)
पण जे आत्मानुं स्वरूप माने छे, के तेनाथी मोक्षमार्गनो लाभ थवानुं माने छे, तेणे
उपयोगस्वरूप आत्माने जाण्यो नथी, ते रागादिने ज आत्मा माने छे, खरेखर ते जडने
आत्मा माने छे; केमके राग ते चेतननी जात नथी. ज्ञानथी विरुद्ध जेटला भावो छे तेने
जे आत्माना उपयोग साथे एकमेक माने छे तेने जड–चेतननी भिन्नतानुं भान नथी,
एटले भेदज्ञान नथी.
जीव सदाय उपयोगस्वरूप छे. ते उपयोगनुं उपयोगरूपे परिणमवुं ने रागरूपे न
परिणमवुं तेनुं नाम धर्म छे. धर्मी जीव पोताना उपयोगनी साथे रागना कणने पण
भेळवता नथी. एककोर उपयोगस्वरूप आतमराम; अने सामे बधा रागादिभावो ने
जड पदार्थो–ते उपयोगथी जुदा;–आवुं अत्यंत भेदज्ञान करतांवेंत बंधभावना कोई पण
अंशमां जीवने एकत्वबुद्धि–हितबुद्धि के प्रेमबुद्धि रहेती नथी; एकला पोताना
उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्माने ज एकत्वबुद्धिथी–हितबुद्धिथी–प्रेमबुद्धिथी अनुभवे छे.
आवो आत्मअनुभव ते मोक्षमार्ग छे.
अरे भाई! तारा उपयोगस्वरूप आत्माने तो तुं ओळखतो नथी, ने बहारथी
रागमांथी धर्म लेवा मांगे छे ते तो तारो पशु जेवो अविवेक छे. जेम पशुओ घास अने
चूरमाने भेळसेळ करीने खाय छे तेम तुं पण अज्ञानथी घास जेवा रागादिने अने
चूरमा जेवा उपयोगने भेळसेळ एकमेक मानीने अशुद्धतानो स्वाद ल्ये छे, ते अविवेक
छे. भाई, अंदरमां रागथी भिन्न तारा चैतन्यस्वादने ओळख, तेना अनुभवथी तने
रागादि परभावोथी आत्मानुं अत्यंत भिन्नपणुं देखाशे.
जड अने चेतनने जगतमां कदी एकपणुं थाय नहीं. जो चेतन पोते जड थई
जाय, के जड पोते चेतन थई जाय, तो जगतमां कोई पदार्थ रहे ज नहीं. जडनुं सदाय
जडपणुं छे ने चेतननुं सदाय चेतनपणुं छे. हवे ते उपरांत अहीं तो जे रागादि–क्रोधादि
भावो छे ते पण जीवना उपयोगस्वभावथी जुदा होवाथी तेमने अचेतनपणुं छे. –आ
रीते अंदरना सूक्ष्मभेदज्ञाननी वात छे. आवुं भेदज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे.

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: ६ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
ज्ञान अने ईनाम

विविध ज्ञान साथे ईनामी योजनावाळा आ प्रश्नो सौने खूब गम्या छे; बाळको
तेमज बीजा जीज्ञासु वांचको पण तेमां उत्साहथी भाग लई रह्या छे, एटलुं ज नहि
पण तेमां ईनाम आपवा माटेनी रकम पण तेओ ज मोकली आपे छे. ते अनुसार आ
मासमां ईनाम आपवा माटे रूा. ३३/– राजकोटना सभ्यो कमलेश–रूपा तथा दीपक
वछराजभाई जैन तरफथी आवेल हता. गतमासनुं ईनाम आपवा माटे वांकानेरना
मोतीबेन तरफथी रूा. ११/– आवेल हता. आ वखते नवी जातना प्रश्नो पूछीए छीए.
प्रश्नो सहेला छे, जराक महेनत करशो तो जरूर उत्तर मळी जशे, अने तमने आनंद पण
थशे. ईनाम आपवा माटे रूा. २५/– चेम्बुरना उत्साहि कोलेजियन सभ्य शैलाबेन
चंद्रकान्त जैन तरफथी आवेला छे. प्रश्नना जवाबो ता. १० ओगस्ट सुधीमां संपादक,
आत्मधर्म सोनगढ (सौराष्ट्र) –ए सरनामे लखवा.
[आ विभागनी एक खूबी ए छे के जवाब लखनार कोई नपास थतुं ज नथी;
१०० टका पासनुं ज परिणाम आवे छे. माटे तमे पण उत्साहथी भाग ल्यो. ]
नीचे ८ वाक््यो आप्यां छे. तेमां अक्षरो पूरा छे; परंतु ते अक्षरो जराक
आडाअवळा थई गया छे, ते तमारे बराबर गोठववाना छे. ए ध्यानमां राखजो के
आमां तमारे नवा अक्षर उमेरवानी जरूर नथी, पण जे अक्षरो आडाअवळा आपेला
छे ते अक्षरो ज सरखा गोठववाना छे– (शब्दोनो जे क्रम आपेल छे ते बराबर छे;
मात्र अक्षर आडाअवळा छे.)
(१) भतर अने बाबलीहु नेबं ईभा हता.
(२) वीसमाबा करतीर्थं नानेमिथ नारगीरथी मोक्ष पाम्या.
(३) रमवीहा नभवाग पापुवारीथी मोक्ष पाम्या.
(४) ढगमांनसो ३६ फूट ऊंचो नभमास्तं छे.
(५) ‘मोन हंणंअरिता’ –ए महामंत्र छे.
(६) रमसायस शास्त्रमां ५१४ ओथागा छे.
(७) आत्मा स्वनभावीज्ञा वस्तु छे.
(८) नोजीव मोक्ष वीगीरात थीरत्रयत्न थाय छे.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ७ :
आपणा एक कोलेजियन सभ्यनो पत्र

मुंबई–चेम्बुरमां आपणा उत्साही सभ्य शैलाबेन चंद्रकांत जैननो एक
पत्र अहीं रजु थाय छे–जेमां कोलेजशिक्षण करतां धार्मिकशिक्षणनी महत्ता तेमणे
प्रगट करी छे, तेमज खास प्रसंगे बालविभागना बंधुओने याद करीने हार्दिक
वात्सल्य व्यक्त कर्युं छे. विशेष तो तेमनो पत्र ज बोलशे. तेओ लखे छे:
“जीवनना घडतरमां केटलाक प्रसंगो केवी रीते मददरूप थाय छे ए हुं एक दाखला
परथी जणावुं छुं. हमणां अमारुं ईन्टर आर्टसनुं परिणाम आव्युं. हजी सांजना
तो पास थईश के नापास–एना विचार आव्या. त्यां रात्रे मारी एक सखीए
आवी मने समाचार आप्या के हुं फर्स्ट कलासमां पास थई छुं; तेमज फर्स्ट
कलासमां बहु ज ओछा (कुल १७ ज) नंबर छे. –पण सद्भाग्ये, हुं ए वखते
टाईफोईड थयो होवाथी १०४ डीग्री तावमां सेकाती हती, एटले मने एवी
सफळता माटे अभिमान करवानुं कारण न थयुं. पछी थोडा दिवस बाद ताव
ओछो थतां समय वीताववा माटे में पुस्तको मांग्या, तो मने मम्मीए भगवान
ऋषभदेव, वीतरागविज्ञान, बे सखी महाराणी चेलणा, सुकुमालचारित्र,
रत्नसंग्रह, दर्शनकथा वगेरे पुस्तको वांचवा आप्या. अंग्रेजी माध्यममां भण्या
होवाने कारणे हुं झडपथी गुजराती वांची शकती नथी एटले धीमे धीमे ए
पुस्तको वांच्या. ए वांचता मने खूब ज आनंद थयो; अने एम थयुं के जीवननी
सफळता जो हो तो धर्ममां होजो. अने ए सत्य धर्म पू. गुरुदेव सिवाय अन्य
कोई स्थाने प्राप्त थई शके एम नथी एवी पण खात्री थई ने उमळको जाग्यो के
त्यां जईने प्रेमपूर्वक गुरुदेवनी पवित्र वाणी सांभळी आ ज जीवनमां धर्म
पामुं.”
विशेषमां शैलाबेन लखे छे के ‘हुं आ रीते पास थई तेनी खुशालीमां मने
रूा. २५/– भेट मळ्‌या छे–जे हुं आत्मधर्मना बालविभागना मारा साधर्मीओने
ईनाम आपवा माटे मोकलुं छुं, –ते स्वीकारशो. सर्वे बालसभ्योनी धर्मवृद्धि
ईच्छती बेन शैलाना जयजिनेन्द्र! ’
(बेन! तमारी भावना अने बालसभ्यो प्रत्येनी लागणी माटे धन्यवाद!)
* * *

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: ८ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
एक हतो वांदरो
[बाळको! घणा वखतथी तमारा
माटे वार्ता आपी शक््या न हता; आ
अंकमां आपीए छीए. बाळकोने
घणीवार ‘वानरसेना’ कहेवाय छे. परंतु
एक वानरनो आत्मा पण पोतानी
ऊंची भावना वडे भगवान थई शके छे,
–ते वात तमने आ वार्ता कहेशे.
]
एक हतो वांदरो.
जो के पूर्व भवमां तो ते मनुष्य
हतो, पण ते वखते तेणे आत्मानी
समजण करी नहि ने घणा माया–कपट
कर्या, तेथी ते मरीने वांदरो थयो.
ते वांदरो एक वनमां रहेतो हतो.
वांदराभाई तो वनमां रहे ने फळफूल खाय;
एक झाड परथी बीजा झाड पर कुदाकूद करे.
छम छम करतां छलांग मारे, ने हूक हूक करतां बीवडावे.
ते वनमां कोई वार मुनि आवे ने झाड नीचे ध्यानमां बेसे; ते मुनिने देखीने
वांदरो बहु राजी थाय, ने ते झाड उपर तोफान करे नहि.
एकवार ते वनमां एक राजा ने राणी आव्या.
राजानुं नाम वज्रजंघ, अने राणीनुं नाम श्रीमती.
ते राजाना बे दीकरा मुनि थया हता.
ते मुनि पण ते वनमां ज आवी चडया.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ९ :
राजा–राणीए तो बे मुनिओने बोलाव्या,
ने भक्तिथी आहारदान दीधुं.
वांदरो झाड उपर बेठो
बेठो आ बधुं जोतो हतो. ए
देखीने तेने एवी भावना जागी
के जो हुं मनुष्य होत तो, हुं पण
आ राजानी माफक मुनिओनी
सेवा करत. पण अरेरे! हुं तो
पशु छुं... मने एवुं भाग्य
क््यांथी... के हुं मुनिने आहार
दउं!
जुओ, वांदराने पण केवी
ऊंची भावना जागी! वांदरो पण
जीव छे, तेनामां पण आपणा जेवुं ज्ञान छे.
आहारदान पछी ते
मुनिओ वनमां उपदेश देवा बेठा;
राजा–राणी ते उपदेश सांभळता
हता. वांदरो पण त्यां बेठोबेठो
उपदेश सांभळतो हतो... ने बे
हाथ जोडीने मुनिने पगे लागतो
हतो.
वांदराने आम करतो
देखीने राजा बहु खुशी थयो ने
तेने वांदरा उपर वहाल आव्युं.

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: १० : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
राजाए मुनिने पुछ्युं के आ वांदरो कोण छे?
त्यारे मुनिए कह्युं के हे राजा! आ वांदरो पूर्वभवमां नागदत्त नामनो
वाणीयो हतो, त्यारे घणां कपटभाव करवाथी ते वांदरो थयो छे. पण हवे तेने
घणा ऊंचा भाव जाग्या छे; ने तेने धर्मनो प्रेम जाग्यो छे. धर्मनो उपदेश
सांभळवाथी ते वांदरो घणो खुशी थयो छे; तेने पूर्वभवनुं ज्ञान थयुं छे अने
संसारथी ते उदास थयो छे.
मुनि पासेथी वांदरानां वखाण सांभळीने राजा घणो खुशी थयो.
वळी मुनिओए कह्युं:–
हे राजा! जेम आ भवमां अमे तमारा पुत्रो हता, तेम आ वांदरो पण
भविष्यना भवमां तमारो पुत्र थशे, अने ज्यारे तमे ऋषभदेव तीर्थंकर थशो त्यारे आ
वांदरानो जीव तमारो गणधर थशे; ने पछी मोक्ष पामशे.




अहा, मुनिना मुखथी ए
वात सांभळीने वांदराभाई तो
बहु ज खुशी थया; ते घणा ज
भावथी मुनिने पगे लाग्या ने
आनंदथी नाची उठया. पोताना
मोक्षनी वात सांभळीने कोने
आनंद न थाय? वांदराभाईना
तो आनंदनो पार न रह्यो. ते
रोज ऊंची ऊंची भावना भाववा
लाग्यो... के क््यारे मनुष्य थाउं...
ने क््यारे मोक्ष पामुं!

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ११ :
अंते ते वांदरो मरीने मनुष्य थयो; ने भोगभूमिमां जन्म्यो. राजा अने राणीना
जीवो पण त्यां ज जन्म्या हता.
एकवार ते बधा जीवो बेठा हता ने धर्मनी वात करता हता. एवामां
आकाशमांथी बे मुनिराज
त्यां ऊतर्या... ने घणा ज
हेतथी सम्यग्दर्शननो
उपदेश दीधो, आत्मानुं
स्वरूप समजाव्युं; अने
कह्युं के हे जीवो! तमे
आजे ज आवा
सम्यग्दर्शनने ग्रहण करो;
आजे ज तमारा आत्माने
ओळखो.
मुनिराजनो
उपदेश सांभळीने ते बधा
जीवोए आत्मानी
ओळखाण करी
सम्यग्दर्शन पाम्या;
वांदरानो जीव पण
सम्यग्दर्शन पाम्यो ने
मोक्षमार्गे चाल्यो. अहा,
एक वखतनो वांदरो पण
आत्माने ओळखवाथी
भगवान बनी गयो.
शाबाश छे एने!
पछी तो ते बधा जीवो त्यांथी स्वर्गमां गया; ने चार भव पछी राजानो जीव
ऋषभदेव तीर्थंकर थयो; ते वखते वांदरानो जीव तेमनो पुत्र थयो, तेनुं नाम गुणसेन.
तेणे भगवान पासे दीक्षा लीधी, ने ते भगवाननो गणधर थयो. पछी केवळज्ञान प्रगट
करीने मोक्ष पाम्यो. तेने नमस्कार.

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: १२ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
बंधुओ, मुनिनी भक्तिथी ने आत्माने ओळखवाथी एक वांदरानो जीव पण
भगवान बनी गयो. तो आपणे पण आत्माने ओळखवो जोईए, ने मुनिओनी सेवा
करवी जोईए. जेथी आपणे पण भगवान थईशुं.
हवे श्रावण महिने आवशुं... ने बीजी वार्ता लावशुं,
आनंद मनावशुं... ने आत्माने जगाडशुं.
* * *
जैनधर्ममां क्रिया

जैनधर्ममां क्रिया छे?
हा; मोक्षनी साची क्रिया जैनधर्ममां ज छे.
तमे क्रियाने मानो छो?
जी हा, राग वगरनी जे मोक्षनी क्रिया छे तेने मोक्षनी क्रिया तरीके मानीए
छीए; पण जे रागादि बंध–क्रियाओ छे तेने मोक्षनी क्रिया तरीके नथी मानता, तेने
बंधनी क्रिया तरीके मानीए छीए. अने पुद्गलनी क्रियाओने जडनी क्रिया तरीके
मानीए छीए. आम त्रण प्रकारनी भिन्नभिन्न क्रियाओने अमे मानीए छीए, तेमने
एकबीजामां भेळसेळ करता नथी. अज्ञानीओ जडनी–रागनी ने मोक्षनी ए त्रणे
क्रियाओने एकबीजामां भेळसेळ करे छे ने मोक्षनी साची क्रिया तेने आवडती नथी. ते
रागनी क्रियाने (एटले के अधर्मनी क्रियाने) के जडनी क्रियाने मोक्षना साधन तरीके
माने छे, मोक्षनी (धर्मनी) क्रियाने ते ओळखता नथी.
* * *
जनसिद्धान्त
* आत्मा जडनो कर्ता छे? ... ना.
* आत्मा जडनो कर्ता केम नथी? ... केमके आत्मा जड नथी.
* जडनो कर्ता कोण होय? ... जे जड होय ते.
* कर्ता अने तेनुं कर्म बंने एक जातिनां होय, विरुद्ध जातनां न होय.
* चेतननुं कार्य चेतन; जडनो कर्ता जड.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १३ :
पं. बुधजनरचित छहढाळा (चोथी ढाळ)
*************************************************
पंडित श्री बुधजनजी रचित आ छहढाळानी त्रण ढाळ अगाउ आत्मधर्म
अंक ३०४, ३०६ तथा ३०८
A मां आवी गई छे. आ चोथी ढाळमां
सम्यक्त्वना आठ अंगोनुं तथा पचीस दोषरहितपणानुं कथन छे. पं.
बुधजनजीनी आ छहढाळा वांचीने पं. दौलतरामजीए छहढाळा रची छे.
*************************************************
[सोरठा]
ऊगो आतमसूर दूर गयो मिथ्यात्व तम
अब प्रगटो गुणपूर ताको कूछ ईक कहत हूं ।।।।
(२)
शंका मनमें नांहि तत्त्वार्थ श्रद्धानमें
निर्वांछक चित्तमांहि परमारथमें रत रहें ।।
(३)
नेक न करते ग्लानि बाह्य मलिन मुनिजन लखें
नाहीं होत अजान तत्त्व कुतत्त्व विचारमें।।
(४)
उरमें दया विशेष गुण प्रगटें अवगुण ढकें
शिथिल धर्ममें देख जैसे तैसे थिर करें।।
(५)
साधर्मी पहिचान करे प्रीति गोवत्ससम
महिमा होय महान धर्मकार्य ऐसे करें ।।
[अर्थ]
सम्यक्त्व थतां आत्मसूर्य ऊग्यो
अने मिथ्यात्व–अंधकार दूर थयो त्यां
गुणनो समूह प्रगट्यो, तेमांथी केटलाक
अहीं कहुं छुं (१)
तेना मनमां तत्त्वार्थश्रद्धानमां शंका नथी;
परमार्थ साधवामां रत रहे छे, ने चित्तमां
बीजी कोई वांछा नथी; मुनिजनोमां बाह्य
मलिनता देखीने जराय ग्लानि करता नथी;
तत्त्व अने कुतत्त्वना विचारमां अजाण के मूढ
रहेता नथी; अंतरमां विशेष दया छे, ने
धर्मात्माना गुणोने प्रसिद्ध करे छे, तथा
अवगुणने ढांके छे; धर्मात्माने धर्ममां शिथिल
थता देखे तो हरकोई उपाये तेने धर्ममां स्थिर
करे छे; साधर्मीओने ओळखी तेना प्रत्ये
गोवत्स समान प्रीति करे छे; अने धर्मना
एवा कार्यो करे छे के जेथी धर्मनो अतिशय
महिमा प्रसिद्ध थाय. (आ प्रमाणे सम्यकत्व
थतां आ निःशंकतादि आठ गुण प्रगटे छे.)
(२–३–४–५)

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: १४ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
(६)
मद नहीं जो नृप तात मद नहीं भूपति मामको
मद नहीं विभव लहात मद नहीं सुंदर रूपको।।
(७)
मद नहीं होय प्रधान मद नहीं तनमें जोरक
मद नहीं जो विद्वान मद नहीं संपत्ति कोषका।।
(८)
हुवो आतमज्ञान तज रागादि विभाव पर
ताको हो कयों मान जात्यादिक वसु अथिरका ।।
(९)
वंदत है अरिहंत जिन मुनि जिन–सिद्धांत को
नमे न देख महंत कुगुरु कुदेव कुधर्मको ।।
(१०)
कुत्सित आगम देव कुत्सित पुन सुरसेव की
प्रशंसा षट भेव करे न सम्यक् वान है ।।
(११)
प्रगटा ऐसा भाव किया अभाव मिथ्यात्वका
वंदत ताके पांव बुधजन मन वच कायसो ।।
समकितीने पिता राजा होय
तोपण तेनो कुळमद नथी; मातृपक्ष नृपति
होय तो तेनो पण जातिमद नथी. वैभवनी
प्राप्तिनो मद नथी तेमज सुंदर रूपनो मद
नथी. प्रधानपद वगेरे अधिकारनो मद
नथी, शरीरमां जोर होय तेनो मद नथी,
विद्वत्तानो मद नथी के धनसंपत्तिनो मद
नथी. जेने रागादि पर विभावो छोडीने
तेनाथी भिन्न आत्मानुं ज्ञान थयुं तेने
जाति वगेरे अस्थिर–नाशवान वस्तुनुं
मान केम होय? जेने पोताथी भिन्न जाण्या
तेनुं अभिमान केम करे? (आ रीते
सम्यग्द्रष्टिने आठ मदनो अभाव छे.)
अरिहंत जिनदेव, जिनमुद्राधारी
मुनि अने जिनसिद्धांतने ज ते वंदन करे
छे; परंतु कुदेव–कुगुरु–कुधर्म गमे तेटला
महान देखाता होय तोपण तेने ते नमतो
नथी. (एटले त्रण मू्रढतानो अभाव छे.)
कुत्सितदेव–कुत्सित गुरु ने कुत्सित
आगम, तथा ते त्रणना सेवको–एवा छ
अनायतननी ते सम्यक्वान जीव प्रशंसा
करतो नथी.
आ प्रमाणे शंकादि आठ दोष, आठ
मद, त्रण मूढता ने छ अनायतन एवा
पचीस दोषनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव छे.
जेने आवो निर्मळभाव प्रगट्यो छे
अने मिथ्यात्वनो अभाव कर्यो छे–तेने
‘बुधजन’ मन–वचन–कायाथी पायवंदन
करे छे.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १५ :
भेदज्ञान–पुष्पमाळा
***********************************
गुरुदेवने अत्यंत प्रिय एवुं समयसार, अने तेमां पण
विशेष प्रिय एवो कर्ताकर्म–अधिकार, तेनां प्रवचनोमांथी
८० प्रश्नोत्तरनी आ भेदज्ञान–पुष्पमाळाना ४६ प्रश्नोत्तर
छेल्ला बे अंकमां आपे वांच्या; बाकीना अहीं रजु थाय
छे. (सं.)
***********************************
(४७) पुण्य वगर, शुभ वगर आत्मा जीवी शके?
हा, सिद्धभगवंतो पुण्य वगर ज आनंदसहित जीवी रह्या छे. मुनिओ
पण ज्यारे शुभोपयोग छोडीने शुद्धोपयोगमां लीन थाय छे त्यारे परम
आनंदने अनुभवे छे. ते प्रकारनो थोडोक अनुभव चोथागुणस्थानवर्ती
गृहस्थनेय थई शके छे. पुण्य के शुभराग ते कांई आत्मानुं जीवन नथी,
ते कांई आत्माना प्राण नथी; चैतन्यभाव ते ज आत्मानुं जीवन छे, ते
ज प्राण छे.
(४८) आत्माना आवा उपदेशथी कोने लाभ थाय?
जे कोई जीवो समजे तेमने लाभ थाय.
(४९) ज्ञानने रागनी साथे अविनाभाव छे?
ना.
(५०) तो ज्ञानने कोनी साथे अविनाभाव छे?
ज्ञानने तो रागनी निवृत्ति साथे अविनाभाव छे. साचुं भेदज्ञान तो
रागथी पाछुं वळेलुं छे. रागना कर्तृत्वमां रोकायेलुं ज्ञान ते साचुं ज्ञान
नथी, अज्ञान छे.

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: १६ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
(५१)
मुमुक्षु जीवे सौथी पहेलांं शुं लक्षमां लेवुं?
ज्ञान अने रागनी भिन्नता लक्षमां लेवी.
(५२) ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान थतां शुं थाय?
भेदज्ञान थतां ज्ञान आस्रवोथी नीवर्ते छे.
(५३) आस्रवोथी नीवर्तवुं एटले शुं?
आस्रवोथी नीवर्तवुं एटले ज्ञानस्वभाव तरफ झूकवुं; ज्ञान ज्ञानमां ज
एकत्वपणे वर्ते ने रागादिमां एकत्वपणे न वर्ते, ते आस्रवोथी नीवर्त्युं
कहेवाय.
(५४) रागमां एकपणे वर्ते ते ज्ञान केवुं कहेवाय?
ते अज्ञान कहेवाय.
(५५) ज्ञानीनो ज्ञानभाव केवो छे?
ज्ञानीनो ज्ञानभाव राग के बंध वगरनो छे; ते मोक्षनुं कारण छे.
(५६) सम्यकत्व पहेलांं तत्त्वनिर्णयना अभ्यासथी शुं थाय छे?
साचा निर्णयना अभ्यासथी मिथ्यात्वनो रस मंद पडतो जाय छे. विकल्प
होवा छतां, ‘ज्ञानमां’ सत्यस्वरूपना घोलन वडे मिथ्यात्व तूटतुं
जाय छे. विकल्प उपर जोर न देतां ज्ञान उपर जोर देवुं.
(५७) जैनशासन एटले शुं?
जेने जाणवाथी जरूर मुक्ति थाय ते जैनशासन.
(५८) कोने जाणवाथी जरूर मुक्ति थाय?
आत्माना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावने शुद्धनयथी जे देखे ते समस्त
जिनशासनने देखे छे, अने तेनी जरूर मुक्ति थाय छे.
(५९) राग ते जैनशासन छे के नथी?
ना, राग ते जैनशासन नथी, तेमज एकला राग तरफनुं ज्ञान ते पण
जैनशासन नथी.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १७ :
(६०)
तो जैनशासन शुं छे?
अंतर्मुख भावश्रुतज्ञान वडे जे आ भगवान शुद्ध आत्मानी अनुभूति
छे ते समस्त जिनशासननी अनुभूति छे. आ रीते शुद्ध आत्मा ते ज
जिनशासन छे.
(६१) जिनशासनमां रागनुं पण कथन तो छे?
पदार्थोनुं स्वरूप ओळखवा माटे जिनशासनमां कथन तो बधुंय आवे,
परंतु तेथी कांई ते बधायने जिनशासन न कहेवाय. जिनशासनमां तो
पापोनुं पण वर्णन आवे छे तो शुं पापभाव ते जिनशासन छे? शुद्ध
आत्मानी अनुभूति वगर जिनशासनने जाणी शकातुं नथी.
(६२) रागने अने निमित्तोने जाणवा ते जैनशासन छे के नथी?
एकला रागने अने निमित्तो वगेरेने ज जाणवामां रोकाय, पण शुद्ध
आत्माना स्वभाव तरफ ज्ञानने न वाळे तो ते जीव जिनशासनमां
आव्यो नथी; केमके जिनशासनमां कांई एकला रागनुं ने निमित्तोनुं ज
कथन नथी, परंतु तेमां रागथी ने निमित्तोथी पार एवा शुद्ध आत्मानुं
पण प्रधान कथन छे. अने ते शुद्ध आत्माने रागने तथा निमित्तोने ए
सर्वेने जे जाणे ते जीवनुं ज्ञान शुद्ध आत्मा तरफ वळ्‌या वगर रहे ज
नहि, ने रागादिथी पाछुं फर्या वगर रहे ज नहि. ए रीते स्वभाव–
विभाव ने संयोग ईत्यादि सर्वने जिनशासन अनुसार जाणीने
शुद्धनयना अवलंबन वडे जे जीव पोताना आत्माने शुद्धपणे अनुभवे
छे ते ज जिनशासनमां आव्यो छे ने तेणे ज सकल जिनशासनने जाण्युं
छे. –एवो जीव अल्पकाळमां जरूर मुक्ति पामे छे.
(६३) धर्मनी शरूआत क््यारे थाय? बोधीबीज क््यारे प्रगटे?
चैतन्यतत्त्व तो अंतर्मुख छे अने रागादि भावो तो बहिर्मुख छे, तेमने
एकपणुं नथी. ज्यां सुधी चैतन्यनी अने रागनी भिन्नताने न जाणे
त्यां सुधी भेदज्ञानरूप बोधिबीज प्रगटे नहि. हुं तो चैतन्य छुं ने
रागादिभावो तो चैतन्यथी भिन्न छे, ज्ञानमांथी रागनी उत्पत्ति नथी,
ने रागमांथी ज्ञाननी उत्पत्ति नथी. आवुं भेदज्ञान करे त्यारे जीवनी
परिणति रागथी खसीने अंतरमां चैतन्यस्वभाव तरफ वळे छे, ने त्यारे
सम्यग्दर्शनादि धर्मनी अपूर्व शरूआत थाय छे.

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: १८ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
(६४) धर्मलब्धिनो काळ क््यारे?
जीवने ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां तेने धर्मलब्धिनो काळ आव्यो. भेदज्ञान ते ज
धर्मलब्धि छे. धर्म करनार जीव काळ सामे जोईने बेसी रहेतो नथी पण
पोताना स्वभावमां अंतर्मुख थाय छे, ने स्वभावमां अंतर्मुख थतां पांचे लब्धि
एक साथे आवी मळे छे. स्वभावमां अंतर्मुख थाय ने धर्मलब्धिनो काळ न
होय एम बने नहि.
(६५) प्राथमिक शिष्ये शुं करवुं?
प्राथमिक शिष्ये धर्मलब्धिने माटे प्रथम भेदज्ञाननो अभ्यास करवो. जेम जीव
अने अजीव द्रव्योने अत्यंत भिन्नता छे, तेम चैतन्यभावने अने रागादि भावोने
पण अत्यंत भिन्नता छे, बंनेनी जात ज जुदी छे. –आवुं अंतरनुं भेदज्ञान ते
कोई शुभराग वडे थतुं नथी पण चैतन्यना ज अवलंबने थाय छे. भेदज्ञान ते
अंतरनी चीज छे, ए कोई बहारना भणतरनी के शुभरागनी चीज नथी.
(६६) केटलुं भणे तो भेदज्ञान थाय?
अमुक शास्त्रो जाणे तो ज आवुं भेदज्ञान होय, के व्रत–महाव्रत पाळे तेने ज
आवुं भेदज्ञान होय–एवुं कोई भेदज्ञाननुं माप नथी. अंतरना वेदनमां जेणे
चैतन्यने अने रागने भिन्न जाण्या, ने उपयोगने रागथी छूटो पाडीने चैतन्यमां
वाळ्‌यो ते जीव भेदज्ञानी छे; शास्त्रोए जेवी ज्ञान अने रागनी भिन्नता बतावी
छे तेवी परिणतिरूपे ते धर्मात्मानुं साक्षात् परिणमन थयुं छे.
(६७) रागना अवलंबने भेदज्ञान थाय?
ना; रागथी तो अत्यंत भिन्नता करवानी छे, तो ते भिन्नता रागना अवलंबने
केम थाय? रागनो जेमां अभाव छे एवा चैतन्यना अवलंबने ज रागनुं ने
ज्ञाननुं भेदज्ञान थाय छे.
(६८) आमां निश्चय–व्यवहारनुं भेदज्ञान क्या प्रकारे आव्यु?
निश्चय तो स्वाश्रितचैतन्यस्वभाव छे, ते स्वभावना आश्रये भेदज्ञान थाय छे,
ने व्यवहारतो पराश्रित रागभाव छे, तेना आश्रये भेदज्ञान थतुं नथी, तेना