Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १९ :
आश्रये तो राग ज थाय छे. निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र तो अंतर्मुख
परिणति छे, ने व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां तो बहिर्मुख
रागपरिणति छे. जे जीव आवुं भेदज्ञान करे छे, ते ज जीव राग साथेनी
कर्ता–कर्मनी अज्ञानप्रवृत्तिथी छूटे छे. भेदज्ञान थतांवेंत ज ते पोताना
चैतन्यस्वभाव साथे एकताथी अने रागादि साथे भिन्नताथी
सम्यग्दर्शनादि निर्मळकार्यरूपे परिणमे छे, ने बंधनथी छूटे छे. आ रीते
भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे.
(६९) ज्ञानमात्रथी ज बंधन कई रीते अटके छे?
अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो. एथी निवर्तन जीव करे.
–सम्मेदशिखरजीनी यात्राए गया त्यारे मधुवनमां आ गाथा वंचाणी
हती. आत्मानो चैतन्यस्वभाव पवित्र छे, सुखरूप छे, अने रागादि
आस्रवो चैतन्यरहित छे, अशुचिरूप छे तथा दुःख उपजावनारां छे. आ
रीते आस्रवोनुं चैतन्यस्वभावथी विपरीतपणुं जाणीने भेदज्ञानी जीव
तेनाथी पाछो वळे छे, एटले तेने बंधन थतुं नथी. आ रीते भेदज्ञानथी
बंधन अटकी जाय छे.
(७०) भेदज्ञान एटले शुं?
भेदज्ञान एटले अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान; तेनो स्वभाव ज क्रोधादिथी छूटा
पडवानो छे. ज्ञाननो उपयोग स्वभाव तरफ वळीने एकता करे अने
रागादिथी भिन्नता न करे एम बने नहि; एटले आत्मा तरफ वळेला
भेदज्ञानने आस्रवोथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावीपणुं छे.
अहिं आचार्यदेव अलौकिक भेदज्ञान वडे आत्मा अने आस्रवोनुं
स्पष्ट जुदापणुं समजावे छे. आत्माने अने आस्रवोने विरुद्ध
स्वभावपणुं छे तेथी तेमने एकता नथी पण भिन्नता छे.
(७१) रागनुं खरुं ज्ञान क््यारे थाय? अथवा रागने कोण जाणे?
रागथी जुदो पडे तो ज रागनुं खरुं ज्ञान थाय छे, रागमां एकता करे
तेने रागनुं पण ज्ञान थतुं नथी. चैतन्य छे ते रागथी अन्य छे; अने
रागमां चैतन्यथी विपरीत स्वभावपणुं छे एटले ते चैतन्यथी अन्य छे,
ते राग पोते

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: २० : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
पोताने जाणतो नथी; अने चैतन्यस्वभावी आत्मा तो स्वयं (–रागना
अवलंबन वगर ज) स्व–परने जाणनारो चेतक छे, ते पोते पोताने
जाणतां रागने पण पर तरीके जाणे छे. ते चैतन्यथी राग अन्य छे. आ
रीते आत्माने अने आस्रवोने भिन्नस्वभावपणुं छे–एवा भेदज्ञानथी
आत्माने बंधन अटकी जाय छे.
(७२) सम्यग्द्रष्टिने बंधन छे?
ना; द्रष्टिअपेक्षाए तो समकितीने मुक्त कह्यो छे. समकितीनी द्रष्टिमां
बंधरहित शुद्ध आत्मा ज छे, तेथी द्रष्टिअपेक्षाए तेने बंधन छे ज नहीं.
जेम अंधकारने अने प्रकाशने भिन्नता छे, तेम अंधकार जेवा आस्रवोने
अने प्रकाश जेवा चैतन्यने अत्यंत भिन्नता छे. जेटलो पराश्रित व्यवहार
छे ते बधोय आस्रवोमां जाय छे, ते चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे; ने जे
स्वाश्रित निश्चय छे–स्वाश्रये थयेली निर्मळ पर्याय छे–तेने चैतन्यस्वभाव
साथे एकता छे. आवा भेदज्ञानथी ज्यां चैतन्य साथे एकतारूप ने
रागादिथी भिन्नतारूप परिणमन थयुं त्यां हवे बंधन शेमां रहे? बंधन तो
ज्यां आस्त्रभाव होय त्यां थाय, पण ज्यां आस्रवोथी छूटीने
चैतन्यभावमां वळ्‌यो त्यां ते चैतन्यभावमां बंधन थतुं नथी.
(७३) भेदज्ञान वगर धर्म थाय?
ना; आ भेदज्ञान करवुं ते मूळ वात छे. भेदज्ञान वगर कई तरफ झूकवुं्र ने
कोनाथी छूटवुं–तेनी खबर पडे नहि. रागने ऊंडे ऊंडे साधन माने तेनुं
वलण आस्रव तरफ ज छे, ते आस्रवोथी छूटो पडतो नथी, आस्रवोथी
भिन्न चैतन्यने ते जाणतो नथी, एटले तेने धर्म थतो नथी. जे जीव
रागथी भिन्नताने जाणतो नथी तेने वीतरागभावरूप धर्म क््यांथी थाय?
अरे जीव! धर्मी थवा माटे तुं आवा भेदज्ञाननी एवी द्रढता कर
के त्रण काळ त्रण लोकमां आस्रवनो अंश पण चैतन्यस्वभावपणे न
भासे; आवुं द्रढ भेदज्ञान थाय एटले परिणति अंतरमां वळ्‌या वगर
रहे नहि. परिणति जयां अंतरमां वळी त्यां पवित्रता प्रगटी, स्वपर–
प्रकाशकपणुं प्रगट्युं अने अतीन्द्रिय सुख प्रगट्युं, एटले दुःखनुं कारण
न रह्युं; आ भेदज्ञाननुं कार्य छे, आ धर्म छे.
(७४) भाई, तारे भगवान थवुं छे?
हा,! तो भगवान थवानुं कारण शुं राग होय? राग तो भगवानथी विरुद्ध

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २१ :
भाव छे, ते तो भगवान थवानुं कारण केम होय? न ज होय. रागथी
जुदो पडीने चैतन्यस्वभाव तरफ वळवुं ते ज भगवान थवानुं कारण छे.
भगवान चैतन्य तो आनंदनुं धाम छे, तेमांथी कदी दुःखनी उत्पत्ति थाय
नहि. रागमांथी तो आकुळता अने दुःखनी उत्पत्ति थाय छे, तो ते
चैतन्यनो स्वभाव केम होय? अंतरना वेदनथी चैतन्यने अने रागने
अत्यंत जुदा पाडी नाख! एवी भिन्नताना अनुभव वडे तुं जरूर
भगवान थईश.
(७५) भेदज्ञान थया पहेलां शुं हतुं ने पछी शुं थयुं?
पहेलांं अज्ञानदशा हती त्यारे– अपनेको आप भूलके हैरान हो गया...
परंतु हवे ज्यां भेदज्ञान थयुं त्यां– अपनेको आप जानके आनंदी हो गया...
भेदज्ञान थयुं त्यां अज्ञान टळ्‌युं, ज्ञानमां प्रवर्त्यो ने आस्रवोथी निवर्त्यो,
दुःखनुं कारण दूर थयुं ने सुखनुं वेदन प्रगट्युं; आ बधानो काळ एक ज छे.
(७६) भेदज्ञाननो केवो महिमा छे?
आचार्य देव ज्ञानना महिमाथी कहे छे के अहो! परपरिणतिने छोडतुं अने
भेदनां कथनोने तोडतुं जे आ प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान उदय पाम्युं छे,
ते ज्ञानमां हवे विभाव साथे कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अवकाश ज नथी, अने
तेने बंधन पण नथी. जुओ, आ ज्ञान!! ज्ञान परभावोथी छूटयुं; अहा,
छूटकाराना पंथे चडेला आ ज्ञानने बंधन केम होय? मति–श्रुत क्षायोपमिक
होवा छतां स्वसंवेदन तरफ वळ्‌यां त्यां ते प्रत्यक्ष छे, अने ते ज्ञानने बंधन
नथी, तेमां विकारनुं कर्तृत्व नथी. चैतन्यना मध्यबिंदुथी ते ज्ञान ऊछळ्‌युं छे,
तेने केवळ ज्ञान लेतां हवे कोई रोकी शके नहि.
(७७) भणेलो छतां अभण कोण छे?
जेने उपयोगस्वरूप आत्मानो अनुभव नथी ते जीव भले गमे तेटलुं
भण्यो होय तोपण ते खरेखर अभण छे, भणतरनो जरापण सार तेणे
प्राप्त कर्यो नथी. भणतरनो सार ए छे के ज्ञानस्वरूप आत्माने परथी
भिन्न अनुभववो.
(७८) अभण छतां भणेलो कोण छे?
जेने निर्विकल्प आत्मानो अनुभव छे ते जीव भले कदाच शास्त्रभणतर
वगेरे

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: २२ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
न भण्यो होय, बहारनुं ओछुं जाणपणुं होय तोपण खरेखर ते बधुं
भणेलो छे, बधा भणतरनो सार जे शुद्धआत्मअनुभव ते तेणे पोतामां
प्राप्त करी लीधो छे.
(७९) कोण हारेला? ने कोण जीतेला?
जेणे चिदानंद तत्त्वनो अनुभव कर्यो नथी, मोक्षने साधवानी रीतनी
जेने खबर नथी ते भले कदाच मोटा वकता होय के घणा शास्त्रोनी
धारणावाळा होय तोपण तेओ हारी गयेला छे... अनुभव वगरनी
एकली धारणा कांई शरणरूप नहीं थाय, एकली बाह्यधारणावडे ते
मोहने जीती नहीं शके.
अने जेणे चिदानंद तत्त्वना आनंदनो अनुभव कर्यो छे ने मोक्षने साधी
रह्या छे तेने भले कदाच बोलतां के वांचतां पण न आवडतुं होय, बीजी
धारणा पण थोडी होय–तोपण ते जीतेला छे, ते अल्पकाळमां मोहने
जीतीने केवळज्ञान प्रगट करीने
त्रणलोकना नाथ थशे.
(८०) पुण्यनो मार्ग अने धर्मनो मार्ग एक छे के जुदा?
पुण्यनो मार्ग अने धर्मनो मार्ग एक नथी पण जुदा छे; पुण्यनो मार्ग
बहिर्मुख छे, धर्मनो मार्ग अंतर्मुख छे; पुण्यनुं फळ संसार छे, धर्मनुं फळ
मोक्ष छे.
(८१) शास्त्रना अर्थनो निर्णय कोण करी शके?
शास्
त्रना शब्दोमां तो कांई ज्ञान नथी, ज्ञान आत्मामां छे. जेणे
आत्मानी सन्मुख थईने निर्मळज्ञानदशा प्रगट करी, ते ज शास्त्रना
अर्थनो खरो निर्णय करी शके छे.
* * *
एक सारुं मजानुं तीर्थ... चार अक्षरनुं नाम;
ऊंचुं तो भई एवुं के आकाशने अडे.
बहादुर एवुं के सिंहने खोळामां रमाडे.
छतां नेमप्रभुनां चरणोमां तो ए नमी पडे.
एना बेकी नंबरना बंने अक्षरो सरखा.
जो न शोधी आपो तो तमे सौराष्ट्रना रहेवासी नहि.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २३ :
मोक्षमार्गे जनारानी
आंख एटले आगमज्ञान
[प्रवचनसार गा. २३३ थी २३६ उपरनां प्रवचनोमांथी]
अनेकान्त जेनुं लक्षण छे एवा आगमना भावश्रुतज्ञानवडे स्व–परनुं तेमज
परमात्माना स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान थाय छे अने मोक्षमार्ग सधाय छे. जेने आगमनुं
ज्ञान नथी तेने स्व–परनुं के परमात्मस्वरूपनुं ज्ञान नथी अने तेना ज्ञान वगर मोक्ष
सधातो नथी.
स्व शुं ने पर शुं तेने ओळख्या वगर स्वमां एकाग्रता क््यांथी थाय? आत्मानुं
परमस्वरूप शुं छे तेने जाण्या वगर तेमां एकाग्रता क््यांथी थाय? ने एकाग्रता वगर
मोक्ष क््यांथी सधाय? माटे कहे छे के आगमज्ञान वगर मोक्षनी सिद्धि नथी.
‘आगमज्ञान’ कहेतां एकला शब्दोना जाणपणानी वात नथी पण द्रव्य–गुण–
पर्यायनुं जे गंभीर स्वरूप आगममां बतावुं छे, स्व–परनुं जेवुं स्वरूप आगममां
बताव्युं छे अने आत्मानुं जेवुं परम स्वरूप आगममां बताव्युं छे तेवुं स्वरूप जाणतां
आत्माना सम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुभवरूप एकाग्रता प्रगटे छे, एवुं भावश्रुत ते खरुं
आगमज्ञान छे. आवा ज्ञान वडे मोहनो क्षय थाय छे, एटले तेने ज कर्मना क्षयरूप
मोक्षनी सिद्धि थाय छे.
सर्वज्ञप्रणीत आगमज्ञान वडे पदार्थना स्वरूपनो निश्चय थाय छे. पदार्थना
निश्चय वडे मिथ्यात्वबुद्धि छूटे छे एटले परमां कर्तृत्व–भोकतृत्वनी अभिलाषा छूटीने
ज्ञानस्वरूप आत्मामां एकमां स्थिरता थाय छे. आवी एकाग्रता वडे शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप
मुनिपणुं थाय छे, अने तेने मोक्ष सधाय छे. पण हजी पदार्थनुं स्वरूप शुं छे तेनी जेने
खबर नथी ते तो परना कर्ता–भोकतापणानी अभिलाषामां रखडे छे, तेने स्वमां
एकाग्रता थती नथी, एटले मुनिदशा के मोक्ष तेने सधाता नथी.
मोक्षमां जनारा जीवोने आगम ज एक चक्षु छे. आगमना ज्ञान वडे अतीन्द्रिय
पदार्थोनुं स्वरूप पण ओळखाय छे. माटे कहे छे के कर्मक्षयना अर्थी जीवोए सर्वप्रकारे
आगमनी पर्युपासना करवी योग्य छे. आगमज्ञान तो शुद्धात्मानो स्वानुभव करावे छे.
जेने स्वानुभव नथी तेने साचुं आगमज्ञान कहेता नथी. आगमज्ञान

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: २४ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
वगरना जगतना जीवो आंधळा छे, वस्तुस्वरूपने तेओ देखी शकता नथी. मोक्षना
मार्गमां चालवा माटे मुमुक्षुने आगमज्ञान ते चक्षु छे. जगतना संसारी जीवो
ईंद्रियचक्षुथी देखनारा छे, ते ईंद्रियचक्षु वडे आत्मा देखातो नथी. धर्मात्माओ
आगमचक्षु वडे स्वानुभव करीने शुद्धात्माने देखे छे.
सर्वज्ञ भगवाने कहेला आगम केवा छे? के तेनुं अंतरंग गंभीर छे; जगतना
समस्त पदार्थो त्रणे काळे उत्पाद–व्यय–ध्रुवरूप छे–आवुं जे सर्व पदार्थनुं यथार्थ ज्ञान
तेनाथी भरेलुं आगमनुं अंतरंग गंभीर छे. सर्वज्ञदेवे कहेला आगमना ज्ञान सिवाय
सर्व पदार्थनुं आवुं सूक्ष्म यथार्थ स्वरूप जाणी शकाय नहीं. अहो! जिनागमनी
गंभीरता!
आवा आगमवडे ज पदार्थना स्वरूपनो निश्चय थाय छे. पण जेमां पदार्थोनी
पराधीनता बतावी होय, बीजा वडे तेनी उत्पत्ति के नाश बताव्या होय–तो ते सर्वज्ञे
कहेला आगम नथी. सर्वज्ञना आगम यथार्थ वस्तुस्वरूप ओळखावीने उपयोगस्वरूप
आत्मानो अनुभव करावे छे. जेने आगमद्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूपनुं ज्ञान नथी तेने ज
एवी मिथ्याबुद्धि थाय छे के हुं विश्वना पदार्थोने रचुं, अथवा मारी पर्यायने बीजो रचे.
पदार्थना निश्चय वगरनो ते जीव डामाडोळ अने अस्थिर रहे छे, स्वमां एकाग्रता नहि
होवाथी ते सदाय व्यग्र ज रहे छे. एक एवा शुद्धात्मामां तो एकाग्रता छे नहि तेथी
अनेक एवा परद्रव्योपणे अथवा अनेक विकल्पोपणे पोताने अनुभवतो थको व्यग्र ज
रहे छे. एवा जीवने मुनिदशा होती नथी. मुनिदशा तो आत्मानी प्रतीति–अनुभूतिरूप
शुद्धात्मप्रवृत्ति छे. ए ज मोक्षमार्ग छे. माटे मुमुक्षुए आगमना सम्यक् अभ्यासवडे
यथार्थ वस्तुस्वरूप जाणवामां पावरधा थवुं.
भाई, तारे मोक्षने साधवो छेने? मोक्ष एटले आत्मानी शुद्धता; तेने साधवा
माटे स्व कोण ने पर कोण एने तो ओळख. जगतना अन्य पदार्थो, तेने तुं तारा मानी
ले तो तने स्व–परनी भिन्नतानुं पण भान नथी. परद्रव्योने पोतानुं माननारो जीव ते
तो अपराधी छे. बीजानी वस्तु लईने एम कहे के आ मारी छे–तो ते चोर गणाय; तेम
उपयोगस्वरूप जे पोतानो आत्मा, तेनाथी भिन्न जगतना अन्य पदार्थोने जे पोतानां
माने छे, तेनुं कार्य हुं करुं एम माने छे–तो ते जीव पण चोर छे–अपराधी छे, –संसारनी
जेलमांथी ते छूटशे नहीं.
बार अंगरूप जिनागममां शुद्धात्मअनुभूतिने ज मोक्षमार्ग कह्यो छे. आगम
अनुसार स्व–परनी भिन्नता जाण्या वगर शुद्धआत्मानी अनुभूति थई शके नहीं.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २५ :
जेने आगमनी उपासना नथी, आगममां आत्मानुं स्वरूप केवुं कह्युं छे तेनी
खबर नथी, तेने स्वानुभव थतो नथी एटले के मोक्षमार्ग थतो नथी. हुं तो
उपयोगस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छुं, अने शरीरादि तो अचेतन छे–रूपी छे–ते हुं नथी,
तेमज मोह–राग–द्वेषादि भावो ते पण मारा उपयोगस्वरूपथी बहार छे एटले जुदा छे;
–आवुं स्व–परनुं भेदज्ञान करे त्यारे ज साचो आत्मा अनुभवमां आवे. भाई! तारे
मोक्षमार्गमां आववुं होय तो सर्वज्ञकथित आगमअनुसार तुं स्व–परने जाण,
परमात्मस्वरूपने जाण. अरे, दुनिया तो वीतरागमार्गने छोडीने रागना मार्गे चडी गई
छे, रागथी ते धर्म मनावे छे, पण बापु! मोक्षनो मार्ग एवो नथी. रागादिभावो ते तो
उपयोगना घातक छे, एने जे मोक्षनुं कारण माने ते जीव ते रागादिने क््यांथी हणी
शकशे? राग भले शुभ हो–ते कांई आत्मानी शांति आपनारो नथी, ते तो शांतिने
घातनारो छे. आत्मा तो राग वगरनो, जिन भगवान जेवो छे, एने ओळखवो ते ज
जिनप्रवचननो सार छे. –
‘जिन सोही है आतमा, अन्य होई सो कर्म,
यही वचनसे समजले जिनप्रवचनका मर्म.’
श्रीमद्राजचंद्रजी पण कहे छे के–
‘जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई,
लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदाई.’
जुओ, शास्त्रोए शुं कह्युं? शास्त्रोए जिनपद जेवुं निजपद बताव्युं; जेवा
भगवान सर्वज्ञदेव छे तेवो ज आ आत्मानो स्वभाव छे. आवा स्वभावने ओळख्या
वगर मोह टळे नहि ने मोक्ष मळे नहीं.
आवुं आत्मस्वरूप बतावनारा आगम ते मुमुक्षुनां चक्षु छे, एटले के एवा
आगमनुं भावश्रुतज्ञान ते मोक्षमार्गने जोवानी आंख छे. सिद्ध भगवंतो तो
शुद्धज्ञानमय छे, तेमने तो असंख्यप्रदेशे सर्वत्र केवळज्ञानचक्षु ऊघडी गयां छे एटले
तेओ सर्वतःचक्षु छे. जगतना सामान्य जीवो तो ईंद्रियचक्षुवाळा छे, ईंद्रियज्ञानथी ज
जोनारा छे; ते ईंद्रियज्ञानवडे कांई आत्मा न जणाय. देव वगेरेने जो के अवधिज्ञानरूपी
चक्षु छे, पण तेना वडे मात्र रूपी पदार्थोने ज तेओ देखे छे, अतीन्द्रिय आत्मा तेना वडे
संवेदन थतुं नथी.

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: २६ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
भगवंत श्रमणो भावश्रुतरूप आगमचक्षुवडे शुद्ध आत्माने साधे छे. ते
आगमचक्षुवडे स्व–परनो विवेक करीने तेमनुं भिन्नभिन्न स्वरूप जाणे छे, अने पोताना
परमात्मस्वरूपमां एकाग्र रहे छे. –आवा भावश्रुतचक्षुवडे तेओ सर्वतःचक्षुरूप
केवळज्ञानने साधे छे. अहीं मुनिओनी प्रधानताथी उपदेश छे, बाकी तो चोथा
गुणस्थानथी सम्यग्द्रष्टिने पण स्व–परना विवेकरूप भावश्रुतज्ञानचक्षु उघडी गयां छे,
ने तेना वडे ते पण मोक्षने साधी रह्या छे. मोक्षे जनारा जीवोने आगमचक्षु एटले के
भावश्रुत ज्ञान वडे शुद्धात्मानुं संवेदन होय छे.
हुं उपयोगस्वरूप आत्मा छुं, ने बाह्यपदार्थो माराथी भिन्न छे एवुं जेने ज्ञान
नथी ते जीवो ज्ञेयोने जाणतां ते ज्ञेयोमां ज लीन थया थका ज्ञानने भूली जाय छे;
ज्ञाननिष्ठपणुं तेमने नथी. शुद्धात्माना संवेदनवडे ज ज्ञाननिष्ठपणुं थाय छे, अने
तेनाथी ज केवळज्ञान सधाय छे. ज्ञानमां एकाग्रतावडे केवळज्ञान सधाय छे, पण ज्ञेयमां
एकाग्रतावडे केवळज्ञान साधी शकाय नहीं. एटले सर्वज्ञपदनी सिद्धिने माटे पहेलां ज्ञान
अने ज्ञेयनुं (अर्थात् स्व अने परनुं) स्वरूप बराबर जाणवुं जोईए. ज्ञान ज्ञेयोने
जाणे भले, पण तेथी ज्ञान कांई ज्ञेयरूप थई जतुं नथी. जडज्ञेयोने जाणे तेथी कांई ज्ञान
पोते जड थई जाय नहि. ज्ञान तो जडथी ने रागथी जुदुं, ज्ञानरूप रहीने ज तेमने जाणे
छे. जाणवुं ए तो ज्ञाननी ताकात छे, ज्ञाननो स्वभाव छे. आवा शुद्धज्ञानस्वरूप हुं छुं–
एम पोताना आत्माने स्वसंवेदनवडे अनुभवमां लईने तेमां एकाग्र थतां केवळज्ञान
प्रगटे छे; असंख्य चैतन्यप्रदेशे अनंता ज्ञानदीवडा प्रगटी जाय छे.
सर्वज्ञभगवाने जीवादि नवतत्त्वोने जेम कह्या छे तेनाथी जरापण विपरीत जेमां
कह्युं होय तेने तो आगम ज कहेता नथी; ने एवा विपरीत तत्त्वोनी जेने मान्यता होय
तेने तो आगमचक्षु ऊघडयां ज नथी एटले मोक्षमार्गने ते देखी शकतो नथी. अहो,
वितराग सर्वज्ञ परमात्माए जेवुं वस्तुस्वरूप कह्युं तेवा वस्तुस्वरूपनो निर्णय साचा
आगमज्ञान वडे थाय छे. आ आगमज्ञान एटले भावश्रुतज्ञान; तेमां समस्त पदार्थोनो
निर्णय करवानी ताकात छे. परथी भिन्न, उपयोगस्वरूप आत्मानी अनुभूति थई
त्यारे आगमचक्षु ऊघडयां, ने त्यारे जीवे मोक्षमार्गने देख्यो. आवा आगमज्ञानपूर्वक
साचुं तत्त्वार्थश्रद्धान् थाय छे, अने आवा ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक निजस्वरूपमां स्थिरतारूप
आचरण होय छे, –आवा श्रद्धा–ज्ञान–आचरण ते मोक्षमार्ग छे.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २७ :
जगतमां चेतन अने जड अनंतपदार्थो पोतपोताना विचित्र गुण–पर्यायो सहित
छे, अने सर्वज्ञना आगम अनुसार तेनुं ज्ञान थाय छे. जेम पदार्थ अनेकान्तस्वरूप छे
तेम तेने जाणनारुं ज्ञान पण अनेकान्तस्वरूप छे; अने द्रव्यश्रुतमां पण तेने कहेवानी
ताकात छे. जाणवानी ताकात ज्ञानमां छे ने कहेवानी ताकात वाणीमां छे; विस्पष्ट
तर्कणारूप जे भावश्रुतज्ञान तेमां सर्वे पदार्थोने जाणवानी ताकात छे. मोक्षमार्गने
साधनारा श्रमण–मुनिराज तेमज श्रावको अने अव्रती सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माओ पण
आगमज्ञानथी स्व–परनुं यथार्थस्वरूप जाणनारा छे, स्व–परनुं भेदज्ञान करीने पोताने
शुद्धपणे (एकलो, परथी जुदो) अनुभवे छे. आगमचक्षुरूप जे भावश्रुत तेमां समस्त
पदार्थोनुं स्वरूप स्पष्ट जाणी लेवानी ताकात छे. जयां आगमज्ञान साचुं न होय, जयां
तत्त्वश्रद्धा चोकखी न होय त्यां संयमदशा होती नथी. –केमके स्व शुं अने पर शुं –एनी
तो एने खबर नथी, ज्ञान शुं अने कषाय शुं तेनी भिन्नतानुं तो भान नथी, ते तो
काया अने कषायोमां एकत्वबुद्धिथी वर्ते छे, तो तेने विषय–कषायोथी निवृत्तिरूप संयम
क््यांथी होय? अरे, हजी तो संयमदशा केवी होय एनी खबर पण जेने न होय तेने
मोक्षमार्ग केवो? ने मुनिपणुं केवुं? बापु! मुनिपणु ए तो हालतोचालतो मोक्षमार्ग छे.
मुनिदशा एटले साक्षात् मोक्षमार्ग. अहा, एना महिमानी शी वात! आ तो
वीतरागनो अलौकिक मार्ग छे, एमां मुनिदशा पण कोई अलौकिक छे. ज्ञान अने साची
श्रद्धा वगर ते मुनिदशा होती नथी.
जुओ, चोथा–पांचमां गुणस्थाने स्व–परनुं भेदज्ञान, अने शुद्धात्मानी अनुभूति
थया होय छे. भेदज्ञान अने अनुभूति वगर तो चोथुं के पांचमुं गुणस्थान होतुं नथी.
भले, मुनि जेवो उग्र शुद्धअनुभव श्रावकने न होय, पण देहथी भिन्न अने रागादिथी
भिन्न उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा केवो छे तेनो अनुभव चोथा गुणस्थाने पण थई
गयो छे. आवा अनुभव उपरांत मुनिदशा केवी होय तेनी आ वात छे. रागथी ने
देहनी क्रियाथी धर्म माननारा अज्ञानी जीवोने तो श्रद्धानीये खबर नथी ने संयमनी
पण खबर नथी. चोथा गुणस्थाने पण पोताने शुद्धअनुभव थयो छे–तेनी धर्मीने
पोताने खबर पडे छे. ने एवा अनुभव पछी ज शुद्धात्मामां विशेष एकाग्रतावडे
मुनिदशा थाय छे. –आवा मुनिभगवंतोने ज मोक्षमार्गनी सिद्धि छे.
नमस्कार हो ते मोक्षमार्गी मुनिभगवंतोने.
* * *

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: २८ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
हुं कोण छुं? ...
****************************************************
हे जीव! तुं विचार तो कर... के तुं कोण छे ने
तारुं साचुं स्वरूप शुं छे? शुं आ शरीर–पुद्गलनुं ढींगलुं
ते तुं छो? –ना; तुं तो उपयोगस्वरूप छो. एवा तारा
स्वरूपने तुं ओळख. चार गतिनां घोर दुःखोथी जेने
छूटवुं होय तेणे अंदर विचार करीने उपयोगस्वरूप
आत्मा हुं छुं एम ओळखवुं जोईए.
****************************************************
हुं कोण छुं अने मारुं साचुं स्वरूप शुं छे एनी साची ओळखाण जीवे कदी करी
नथी. अनादिथी पोताना जीवस्वभावने भूल्यो छे; ते भूल उपरांत कुदेवादिनी मान्यता
ग्रहण करे छे ते गृहीतमिथ्यात्व छे. गृहीतमिथ्यात्व तो जीवे कोईकवार टाळ्‌युं पण
अगृहीतमिथ्यात्व तेणे पूर्वे कदी टाळ्‌युं नथी. त्यागी थयो ने शुभभाव करीने स्वर्गे गयो
त्यारे पण ते शुभरागमां धर्म मानीने तेना ज अनुभवमां अटकी गयो, तेनाथी जुदा
चेतनरूप आत्मानो अनुभव न कर्यो तेथी अगृहीतमिथ्यात्व तो टळ्‌युं नहि. कुदेवादिना
सेवनरूप गृहीतमिथ्यात्व तो छोडयुं, साचा देव–गुरुने तो मान्या, केमके ते वगर नवमी
ग्रैवेयक सुधी जाय नहि; ए रीते गृहीतमिथ्यात्व छोडवा छतां उपयोगस्वरूप शुद्धात्मानी
श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन प्रगट न कर्युं तेथी तेनुं मिथ्यात्व न छूटयुं ने संसारभ्रमण न
मटयुं; तेथी अहीं जीवादिनुं यथार्थ स्वरूप जाणीने मिथ्यात्व सर्वथा छोडवानो उपदेश
आपे छे.
आत्मा केवो छे? सर्वज्ञ भगवाने आत्मा ज्ञानआनंदरूप जोयो छे, देहथी भिन्न
जोयो छे. आवा आत्माने जाणीने देह साथेनी एकताबुद्धि छोड. आत्माना स्वभावमां
दुःख नथी. आत्मा तो ज्ञान–आनंद ने शांतिथी भरेलो छे. देह तो रूपी छे, आत्मा
अरूपी छे. ‘विनमूरती’ एटले रूपीपणा वगरनो, अने ‘चिन्मूरति’ एटले चैतन्य
स्वरूप, –आवो आत्मा छे.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २९ :
कर्म अने शरीर अजीव छे, पुण्य–पाप ते आस्रव छे; तेने पोताना मानवा के
तेवा स्वरूपे जीव मानवो–ए तो भगवानना उपदेशथी विपरीत मान्यता छे एटले के
मिथ्याश्रद्धा छे. अनंता सर्वज्ञ केवळीभगवंतो थया, सीमंधरनाथ वगेरे तीर्थंकर
भगवंतो विदेहक्षे
त्रमां (मनुष्य लोकमां) सर्वज्ञपणे अत्यारे बिराजी रह्या छे, त्यां
लाखो केवळीभगवंतो पण बिराजे छे; ते बधा भगवंतोए उपयोगरूप आत्मा जोयो
छे, –जडरूप के रागरूप नथी जोयो. उपयोगरूप आत्मा भगवाने जोयो छे ने तेवो ज
उपदेश्यो छे. आवा आत्माने देहथी भिन्न जाणीने विपरीत मान्यता छोडो.
प्रयोजनभूत छे एटले के तेमनुं ज्ञान करवुं ते प्रयोजनभूत छे. कांई अजीव के
आस्रवबंध प्रयोजनभूत नथी पण तेने छोडवा माटे तेनी ओळखाण करवी ते
प्रयोजनभूत छे. ओळख्या वगर तेने छोडशे केवी रीते? घरमां कोई दुश्मन प्रवेशी गयो
होय, तेने ओळखे नहि ने मित्र तरीके माने –तो ते तेने क््यांथी छोडशे? तेम रागादि
आस्रवो के जे शत्रु जेवा छे, तेने जे मित्र माने (–तेनाथी धर्म माने) ते तेने क््यांथी
छोडशे? माटे बधा तत्त्वोने जेम छे तेम बराबर जाणो तो ज तेनी साची श्रद्धा थाय, ने
भूल मटे. भूल मटे एटले दुःख मटे. माटे दुःखथी छूटीने सुखी थवुं होय तेणे आ
जीवादि साततत्त्वोनुं स्वरूप ओळखवुं. शुद्धद्रष्टिथी तेमां शुद्धजीव ज उपादेय छे. अजीव
तो भिन्न छे; आस्रव ने बंध ते दुःखनां कारणो छे; संवर–निर्जरा ते सुखनां कारणो छे;
ने मोक्ष पूर्ण सुखरूप छे.
जीव केवो छे? चेतन छे. चेतननुं एटले के जीवनुं रूप तो उपयोग छे. जीव
चेतनरूप सुखथी भरेलो छे; अजीवमां ज्ञान के सुख–दुःख नथी. जीव ज ज्ञानवडे स्व–
परने जाणे छे ने पोताना सुखने वेदे छे. जगतमां जेने बीजा कोईनी उपमा लागु पडती
नथी एनुं अनुपम जीवतत्त्व उपयोगरूप छे. आवा निजतत्त्वने ओळख्या वगर जीव
दुःख पाम्यो; तेने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व मटे ने दुःख छूटे. ‘हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं’
एवा अनुभव वगर देहबुद्धि मटे नहीं, ने सुख थाय नहीं.
शास्त्रकारोए उपयोगलक्षणथी आत्मानुं स्वरूप ओळखाव्युं छे. अहीं
छहढाळामां कह्युं के–
‘चेतनको है उपयोग रूप, विनमूरति चिन्मूरति अनूप.’
समयसारमां कुंदकुंदस्वामीए कह्युं छे के–

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: ३० : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
‘हुं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञान–दर्शनमय खरे.’
सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे.’
समयसार–नाटकमां पं. बनारसीदास कहे छे के–
‘चेतनरूप अनूप अमूरत सिद्धसमान सदा पद मेरो.
आत्मसिद्धिमां श्रीमद्राजचंद्रजी कहे छे के–
‘शुद्ध–बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम. ’
–आम सर्वज्ञभगवाने जोयेलुं जीवनुं यथार्थस्वरूप सन्तोए जाते अनुभवीने
शास्त्रोमां बतावुं छे; ते प्रमाणे बराबर ओळखवुं जोईए,
नवतत्त्वोमां चेतनरूप जीव;
चेतना वगरनां पुद्गल वगेरे पांच द्रव्यो अजीव;
मिथ्यात्व अने राग–द्वेषना भावो–जेना वडे कर्मो आवे ने बंधाय ते आस्रव
तथा बंध;
सम्यग्दर्शनपूर्वक शुद्ध आत्मानुं भान अने तेमां लीनता वडे शुद्धता थतां नवां
कर्मो अटके ने जुनां खरे ते संवर–निर्जरा;
अने संपूर्ण सुखरूप, तथा कर्मना सर्वथा अभावरूप मोक्ष छे.
–आवा तत्त्वोने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व टळे छे. तेथी पोताना हित माटे सात
तत्त्वोनुं ज्ञान उपयोगी छे, जरूरनुं छे. तत्त्वने जाणे नहि ने धर्म करवा मांगे तो थाय
नहि. माटे ते तत्त्वोने जाणीने ते संबंधमां विपरीतता टाळवी जोईए.
सर्वज्ञदेवे जीव सदा उपयोग लक्षणरूप जोयो छे. आत्मानुं स्वरूप तो उपयोग
छे. आवो उपयोगस्वरूप शुद्धआत्मा पोताना ज्ञानमां भास्या वगर जीव क््यांक ने
क््यांक तत्त्वनी भूल कर्यां वगर रहे नहि. ने भूल होय त्यां दुःख होय. मिथ्याश्रद्धाज्ञान–
चारि
त्र ते दुःखरूप छे ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते सुखरूप छे.
जीव पोते केवो छे ते जाण्या वगर पोतामां ठरशे केवी रीते?
अजीवने अजीव जाण्या वगर तेनाथी जुदो केवी रीते पडशे?

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ३१ :
दुःखनुं कारण शुं छे ते ने जाण्या वगर तेने केवी रीते छोडशे?
अने मोक्ष पूर्ण सुखरूप छे तेने जाण्या वगर ते तरफनो प्रयत्न केवी रीते करशे?
आ रीते सुख अने तेनो उपाय, तथा दुःख अने तेनां कारणो –तेनुं ज्ञान
करवा माटे सात तत्त्वो जाणवा जरूरी छे. जो अजीवने जीव मानी ल्ये तो त्यांथी
उपयोगने पाछो केम वाळे? शुभ–अशुभ बंने आस्रव होवा छतां तेने संवर मानी
ल्ये तो तेने छोडे क््यांथी? देहनी क्रिया पोतानी माने तो तेनाथी (अजीवथी)
भिन्नता कई रीते अनुभवे? सम्यग्दर्शनपूर्वकनी शुद्धता ते खरो संवर छे, तेने
बदले देहनी क्रियाने संवर माने के रागने संवर माने तो तेनाथी जुदो पोताने केम
अनुभवे? –आ रीते तत्त्वना ज्ञान वगर मिथ्यात्व टळे नहि. भगवान! तारुं
स्वरूप भगवाने केवुं कह्युं छे तेना भान वगर तारी भूल भांगशे नहि ने तारुं
भ्रमण मटशे नहि. आत्माना ज्ञान वगर शुभभाव करीने स्वर्गे गयो त्यारे पण
अगृहीतमिथ्यात्व भेगुं लईने गयो, एटले त्यां पण दुःखी ज थयो. आत्माना
भान वगर क््यांय सुखनो स्वाद आवे नहि.
चेतननुं रूप तो उपयोग एटले जाणवुं–देखवुं ते छे. शरीर तो अजीव–
जडरूपी छे, ते कांई जाणतुं नथी. उपयोगलक्षणवडे आत्मा देहथी भिन्न जणाय छे.
अमूर्त आत्मा बधानो जाणनार छे. जाणनारने पुण्य–पापरूप मानवो के देहरूप
मानवो ते मिथ्यात्व छे. तेणे जीवने उपयोगस्वरूप न मान्यो पण अजीवरूप ने
आस्रवरूप मान्यो, एटले तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा थई. जीवे साचा तत्त्वोने कदी
ओळख्या नथी, तेमां भेळसेळ करीने गोटा वाळ्‌या छे. जाणनार तत्त्व जडनी पण
क्रिया करे एम केम बने? उपयोगनी क्रिया जडरूप केम होय? –न ज होय. चेतनमां
वर्ण–गंध–रस–स्पर्शरूप मूर्तपणुं नथी, ते तो उपयोगरूप अमूर्त छे; एनी
ओळखाण वडे ज सम्यग्दर्शन थाय छे ने मिथ्यात्व टळे छे. माटे संतोए करुणा
करीने तेनो उपदेश दीधो छे.
हे भाई! भगवाने बधा आत्माने सदा उपयोगस्वरूप जोया छे, ते अजीव केम
होय? के शरीररूप केम होय? आत्मा उपयोगरूप छोडीने जडरूप कदी थतो नथी. आ
प्रमाणे सर्वज्ञभगवाने जोयेला उपयोगरूप जीवने जाणे तो बधा खुलासा थई जाय ने
तत्त्वोनी विपरीतता मटी जाय. उपयोगरूप आत्मा अजीव नथी एटले अजीवनी क्रिया
ते करतो नथी.

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: ३२ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
प्रश्न: अजीवमां तो शक्ति न होय, एटले आत्मा तेने हलावे–चलावे त्यारे
ते हाले–चाले?
उत्तर: एम नथी; अजीवमां पण तेनी अनंत शक्तिओ छे ने तेनी क्रियाओ
ते स्वयं पोतानी शक्तिथी करे छे. एकेक जड रजकणमां तेना अनंता जड–गुणो छे,
ने तेनी शक्तिथी तेनामां रूपांतर हलनचलन वगेरे थाय छे. माटे जीव अने
अजीवनी भिन्नता जाणवी. ते बंनेने भिन्न ओळखतां तत्त्वनी भूल टळे छे ने
यथार्थ श्रद्धा थाय छे.
जगतमां भिन्नभिन्न अनंता जीवो छे; जीव करतां अनंतगुणा पुद्गलो
छे; असंख्य काळाणु द्रव्यो छे; धर्मास्ति, अधर्मास्ति अने आकाश ए प्रत्येक द्रव्यो
छे. आ छ प्रकारनां द्रव्योमां जीव सिवायनां पांचे अजीव छे; ने पुद्गल सिवायना
पांचे अमूर्त छे. जगतमां आ छ ए प्रकारनां द्रव्यो सर्वज्ञदेवे स्वतं
त्र जोया छे;
तेने स्वतंत्र न मानतां पराधीन मानवा ते तत्त्वश्रद्धामां विपरीतता छे. छ
द्रव्योरूप जे विश्व, तेनो कोई कर्ता–हर्ता के धर्ता नथी. (धर्ता=धारण करनार)
छए द्रव्योमां एकलो आत्मा ज उपयोगरूप छे, तेथी आत्मा ज अनुपम
छे. अहा! जे सर्वज्ञस्वभावी महान पदार्थ छे तेने कोनी उपमा देवी? अनादिथी
आत्मामां सर्वज्ञस्वभाव छे–जे बीजा शेमांय नथी; शरीरमां नथी, रागमां नथी,
एवो उपयोग ते जीवनुं लक्षण छे. अलौकिक वस्तु आत्मा छे, तेना स्वभावने
बीजा कोई बाह्य पदार्थनी उपमा आपी शकाती नथी; पोताना अनुभव वडे तेने
जाणी शकाय छे. आवा आत्माने स्वानुभवथी जाणे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय.
सम्यग्दर्शन वगर सम्यग्ज्ञान के सम्यक्चारि
त्र होतां नथी. सम्यग्दर्शन वगरनी
शुभक्रियाओ ते एकडा वगरनां मींडांनी माफक धर्ममां किंमत वगरनी छे. जेम
आंख वगरनो माणस शोभे नहि, तेम जीवनी आंख तो उपयोगरूप ज्ञान–दर्शन
छे, पुण्य–पाप ते कांई जीवनी आंख नथी; आ बहारनी आंख तो जड छे.
उपयोगस्वरूप निज आत्माने जाणवा–देखवारूप सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञानचक्षु
जेने खुल्यां नथी तेनी शुभक्रियाओ पण धर्ममां शोभती नथी, अर्थात् ते धर्मनुं
कारण थती नथी पण संसारनुं ज कारण थाय छे. पोते पोताने न देखे–न जाणे
एने धर्म केवो? सम्यक्त्वरूपी धर्मनी आंख ज तेने ऊघडी नथी.

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ३३ :
शुद्धात्मद्रष्टिपूर्वक सात तत्त्वोने जाणवा जोईए; अजीवने जाणतां एम जाणवुं के
तेमां हुं नथी, माराथी ते भिन्न छे; ए ज रीते रागने जाणतां तेनाथी चैतन्यनी
भिन्नता जाणवी. –आम जाणे त्यारे तत्त्वोने जाण्या कहेवाय. पण शरीरने के रागने
आत्मानुं स्वरूप माने तो तेणे तत्त्वोने जाण्या नथी. जीव अने अजीव ए बे मूळ तत्त्वो
छे, ने बाकीनां तत्त्वो ते तेनी अशुद्ध के शुद्ध पर्यायो छे. आ सात तत्त्वोने ओळखे तो
तेमां अजीवथी पोतानी भिन्नता जाणीने, पोताने उपयोगस्वरूप जाणे, एटले अजीव
साथे एकताबुद्धि छोडीने शुद्ध जीवस्वभावनो आश्रय करतां मिथ्यात्वादि आस्रव–बंध
टळे छे ने सम्यक्त्वादिरूप संवर–निर्जरा–मोक्षदशा प्रगटे छे. माटे सात तत्त्वोने जाणवा
खास जरूरना छे. अरे, अत्यारे तो लोकोमां सात तत्त्वोनुं ज्ञान भूलाई गयुं छे.
अनादिथी जीवे सात तत्त्वोने सरखा जाण्या नथी. आ तो वीतरागवाणीमां मुळ मूदनी
वात छे. सात तत्त्वोमां हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं–एम ओळखवुं, –जेथी मिथ्यात्व टळे
ने सम्यक्त्व थाय.
हुं कोण छुं ने मारुं खरुं स्वरूप शुं छे तेनो जीवे साचो विचार पण कदी कर्यो
नथी. चार गतिनां घोर दुःखोथी जेने छूटवुं होय तेणे अंदर विचार करीने
उपयोगस्वरूप आत्मा हुं छुं एम ओळखवुं जोईए. शास्त्रकारोए करुणा करीने ते
स्वरूप समजाव्युं छे.
‘वीतराग–विज्ञान’ (भाग बीजो)मांथी एक प्रकरण.
(पुस्तक छपाय छे अने आत्मधर्मना ग्राहकोने भेट मळशे.)
* * *
* एक भूल: आत्मधर्मना गतांकमां १६ मा पाने एम छपायुं छे के ‘जयां हिमालयनी
टोच छे त्यां पहेला स्वर्गनुं तळियुं छे’ –ते भूल छे; तेने बदले आ
प्रमाणे वांचवुं के ‘जयां मेरु पर्वतनी टोच छे त्यां पहेला स्वर्गनुं तळीयुं
छे, बंने वच्चे मा
त्र एक वाळ जेटलुं अंतर छे. ’ (एटले के हिमालयने
बदले मेरु समजवुं. आ शरतचूक प्रत्ये ध्यान खेंचनारा पाठकोनो
आभार! )
* * *

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: ३४ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
* ‘आत्मधर्म’ एटले शुं?
आत्मधर्म एटले आत्मानो स्वभाव; आत्मा उपयोगस्वरूप छे ते
उपयोगनुं शुद्ध उपयोगरूपे रहेवुं तेनुं नाम धर्म; अथवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारि
त्र ते आत्मानो धर्म.
* सम्यग्दर्शन एटले शुं?
सम्यक्दर्शन एटले साचुं दर्शन; आत्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं देखवुं
(श्रद्धवुं) ते आत्मानुं सम्यक्दर्शन छे; अने ते ज धर्मनुं मूळ छे, केमके साचुं
स्वरूप देखे तो ज तेने साधी शके.
* तीर्थंकर एटले शुं?
तीर्थने जे करे ते तीर्थंकर, तीर्थ एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
मोक्षमार्ग; ते पोतामां जे प्रगट करे तेणे पोताना आत्मामां तीर्थनी रचना करी.
अने विशिष्ट पुण्यप्रकृतिवडे एवा रत्न
त्रयरूप धर्मतीर्थनो उपदेश देनारा
ऋषभदेवादि भगवंतो ते तीर्थंकरो छे. परमार्थे पोताना आत्मामां रत्नत्रयरूप
तीर्थनो कर्ता आत्मा पोते ज छे.
* आत्मधर्ममां पुराणकथाओ आवे छे तेमां अनेक जीवोना आवता भवो विषे लख्युं
होय छे तो तेनी केवी रीते खबर पडी?
भाई, पुराणशास्त्रो गणधर भगवंतोनी परंपराथी चाल्या आवे छे.
भगवान त्रणकाळने जाणनारा हता; अनेक संत–मुनिओ पण पोतानी विशेष
ज्ञान–शक्तिथी भूतकाळ ने भविष्यकाळनी वात जाणी शकता. ए बधुं पुराणोमां
वर्णव्युं छे, ने तेना आधारे ज कथाओ लखाय छे.
* हुं आवता भवमां शुं थईश?
तमे जीव छो, ने जीव ज रहेशो. बाकी धर्ममां जे जीवो रस लेता होय ते
जीवो माटे अनुमान करी शकाय के आवता भवमां ते देवलोकमां जशे.

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*
सती चंदनबाळानी कथा अमारे वांचवी छे–एम एक बहेन लखे छे.
तेमने जणाववानुं के हजी आपणे ते पुस्तक छपाव्युं नथी परंतु आवता
अंकमां चंदनबाळानी टूंकी कथा आपीशुं.
* रत्नचिंतामणि–उत्सव कई रीते उजवाय?
आत्मा पोते अनंतगुणथी भरेलो रत्नचिन्तामणि छे, तेनो स्वानुभव
करवो ए साचो रत्नचिन्तामणि–महोत्सव छे. (एम गुरुदेवे मुंबईमां कह्युं हतुं.)
* आत्मानी आंख केम ऊघडे?
ज्ञान ते आत्मानी आंख छे. स्वानुभववडे ते आंख ऊघडे छे. एनी रीत
आचार्यदेवे समयसारमां बतावी छे.
आत्मा एवो चिंतामणी चैतन्यरत्न छे के जेने लक्षमां लईने चिंतवतां
सम्यग्दर्शन वगेरे रत्नोनी प्राप्ति थाय छे. जगत एवा चैतन्यरत्नने पामो.
ज्ञान आत्माना चक्षु छे. स्वानुभववडे ते ज्ञानचक्षु उघडे छे. एवा
ज्ञानचक्षु खोलवानो उपाय आचार्य भगवाने बताव्यो छे. ते समजवा माटे
वांचो – ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तक.
* अश्विनकुमार जैन (मोरबी) वीतरागदेवना दर्शनथी प्रमोद तथा बाल विभाग
प्रत्येनी तमारी उत्तम लागणीओ बदल धन्यवाद! धार्मिक भावनाओमां
उत्साहथी खूब खूब आगळ वधो.
* हसुबेन (जोरावरनगर) लखे छे के बालविभागनां आंबामां सम्यकत्वादि
सूचक केरी मळतां आनंद थयो. आ केरी तो एवी के सदाय खवाय. एनो स्वाद पण
एवो के जे चाखतां सिद्धपद पमाय! (साथे बे बहेनोनो संवाद पण मळ्‌यो छे.)
* आत्मिक संपत्ति
केटलाय माणसो आज एम समजी रह्या छे के आर्थिक संपत्तिमां आगळ
वधी रहेलुं अमेरिका बहु सुखी हशे! परंतु ते केटली भ्रमणा छे –एनो ख्याल
खुद अमेरिकाना प्रमुख निकसनना शब्दोथी आवी शकशे: तेमणे पोताना
प्रवचनमां हमणां कह्युं हतुं के– ‘आपणे (अमेरिकनो) भौतिक रीते संपन्न
बन्या छीए पण

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: ३६ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
आत्मिक संपत्तिमां दरिद्र छीए... ’ त्यारे आपणे भारतीयो निःशंकपणे एम
कही शकीए के अमारा भारत देशनी आध्यात्मिक संपत्ति महान छे, अने अमारी ते
समृद्धिवडे अमे गौरव अनुभवीए छीए... केमके गमे त्यारे पण साचुं सुख ने शांति
समजीए अने परदेश पाछळनी दोड छोडी दईए.
* * *
श्रावण मासनो शिक्षणवर्ग

सोनगढमां प्रौढवयना जिज्ञासु जैनभाईओ माटेनो शिक्षणवर्ग दर वर्षनी जेम
*
खास प्रवचनना दिवसो श्रावण वद १३ मंगळवार ता. ९–९–६९ थी भादरवा
सुद पांचम मंगळवार ता. १६ सुधी राखवामां आव्या छे.
* दसलक्षणी पर्युषणपर्वनो प्रारंभ भादरवा सुद ४ ने सोमवार ता. १प–९–६९
ना रोज थशे, (वच्चे एक तिथि घटती होवाथी एक दिवस वहेला शरू थाय छे)
अने भादरवा सुद १४ बुधवार ता. २४–९–६९ना रोज पूर्ण थशे.
“ज्ञानचक्षु” भेटपुस्तक
* आत्मधर्मना चालु ग्राहकोने ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तक राजकोटना शेठश्री मोहनलाल
कानजीभाई घीया तरफथी (प्रभुलालभाईनी स्मृतिमां) भेट आपवानुं छे. आ
पुस्तकमां समयसार गा. ३२० (जयसेनस्वामी रचित टीका) उपरनां पू.
गुरुदेवनां प्रवचनो छपायेलां छे.
* भेटपुस्तक मेळववा माटेनुं कुपन आ अंकनी साथे मोकल्युं छे, तेमां लखेल
सूचना मुजब वेलासर भेटपुस्तक मेळवी लेवा विनति छे.
* जो कोई ग्राहकने चालु अंकनी साथे कुपन न मळ्‌युं होय तो ता. १० ओगष्ट
सुधीमां संपादकने जणावी देवुं. (साथे पूरुं सरनामुं अने ग्राहक नंबर लखवो.)

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ३७ :
* अमे जिनवरनां संतान *
(नवा सभ्योनां नाम)
२३प९ जितेन्द्रकुमार एन. जैन अमरापुर
२३६०A शर्मीष्ठाबेन एन. जैन धनियाळ
२३६०B रंजनबेन एन. जैन
२३६१A नयनाबेन चंदुभाई जैन सोनगढ
२३६१B चेतनाबेन चंदुभाई जैन
२३६२A मुकेश रसीकलाल जैन सुरेन्द्रनगर
२३६२B दिपक रसीकलाल जैन
२३६३ आशाबेन चुनीलाल जैन भीवन्डी
२३६४ परेशकुमार रमणलाल जैन अमदावाद
२३६पA महेन्द्रकुमार कांतीलाल जैन देलवाडा
२३६पB सुरेशकुमार कांतीलाल जैन
२३६६A जीवराजभाई नामेरीभाई जैन उमैया
२३६६B गोविंदभाई काथडभाई जैन ”
२३६६C नारायणभाई काथडभाई जैन ”
२३६७ भरतकुमार लालचंद जैन सोनगढ
२३६८A किरणबाळा एम. जैन कलकत्ता
२३६८B सोनलबाळा एम. जैन
२३६८C रूपलबाळा एम. जैन
२३६८D दर्शनाबेन एम. जैन
२३६८E हर्षदराय एम. जैन
२३६९A दिनेशकुमार सी. जैन सनावद
२३६९B भुपेशकुमार सी. जैन सनावद
२३६९C धीरूभाई वी. जैन सनावद

* दाहोदमां ता. ११–७–६९ ना
रोज भाईश्री पन्नालालजी मेघनगरवाळा
स्वर्गवास पामी गया छे. सवारमां पूजन
करीने पछी शास्त्रस्वाध्यायमां बेठा हता,
त्यां साडाआठ वागे छातीमां दुःखावो थतां
घरे गया, ने नव वागे देह छोडीने
स्वर्गवास पामी गया. देव–गुरुना शरणे
तेओ आत्महित पामो.
* अमरापुर (गीर)ना युवान भाईश्री
बिपिनकुमार एन. जैन गत अषाड सुद
१२ना रोज शांताक्रुझ–मुंबई मुकामे
केन्सरनी बिमारीथी स्वर्गवास पाम्या छे.
तेओ बालविभागना सभ्य हता ने मात्र
१६ वर्षनी तेमनी उंमर हती. दोढ–बे
मासनी मांदगी दरमियान पण जराय
कंटाळो लाव्या वगर तेओ धार्मिक
पुस्तकोनुं वांचन करता. सोनगढ आवीने
गुरुदेवना दर्शन करवानी तथा आहारदान
देवानी तेमनी भावना हती, ने ते माटे
शुक्रवारनी प्लेननी टिकिट पण मंगावेल,
परंतु ते भावना पूरी थवा पहेलां शुक्रवारे
परोढिये साडात्रण वागतां तेमनो
स्वर्गवास थई गयो. धार्मिक संस्कार अने
भावनामां आगळ वधीने तेमनो आत्मा
आत्महित साधे ए ज भावना.
(बालसभ्यो! आपणा एक सभ्यना
स्वर्गवासना आ समाचार तमे वांचो
त्यारे आत्मशांति अर्थे वैराग्यभावना
सहित नमोक्कारमंत्र नववार गणजो.)

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: ३८ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
साची परंपरा के नवीन मार्ग?
[पं. टोडरमलजीए अनेक प्रकारनी स्पष्टता करी छे तेमां कुळपरंपरा संबंधी
पण सुंदर स्पष्टता करी छे ते अहीं आपीए छीए.]
कोई जीव तो कुळक्रमवडे ज जैनी छे पण जैनधर्मनुं स्वरूप जाणता नथी, मात्र
कुळमां जेवी प्रवृत्ति चालती आवे छे ते ज प्रमाणे तेओ प्रवर्ते छे. ते तो जेम अन्यमति
पोताना कुळधर्ममां प्रवर्ते छे ते ज प्रमाणे आ पण प्रवर्ते छे.
वळी जो पिता दरिद्री होय अने पोते धनवान थाय तो त्यां कुळक्रम विचारी
पोते दरिद्री रहेतो नथी, तो धर्ममां कुळनुं शुं प्रयोजन छे? पिता नर्कमां जाय अने पुत्र
मोक्ष जाय छे तो त्यां कुळक्रम क््यां रह्यो? जो कुळ उपर ज द्रष्टि होय तो पुत्र पण
नर्कगामी थाय; माटे धर्ममां कांई कुळक्रमनुं प्रयोजन नथी, पण शास्त्रोना अर्थने
विचारी, काळदोषथी जैनधर्ममां पण पापी पुरुषोए कुदेव–कुगुरु–कुधर्म सेवनादिरूप वा
विषय–कषायना पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलावी होय तेनो त्याग करी,
जिनआज्ञाअनुसार प्रवर्तवुं योग्य छे.
प्रश्न: परंपरा छोडीने नवीन मार्गमां प्रवर्तवुं योग्य नथी.
उत्तर: जो पोतानी बुद्धिथी नवीन मार्गमां प्रवर्ते तो ते योग्य नथी, परंतु
परंपरा अनादिनिधन जैनधर्मनुं स्वरूप शास्त्रोमां प्ररूपण कर्युं छे, ते प्रवृत्ति छोडीने
वच्चे कोई पापी पुरुषोए अन्यथा प्रवृत्ति चलावी होय, तेने परंपरामार्ग केवी रीते
कहेवाय? तथा तेने छोडी पुरातन जैन शास्त्रोमां जेवो धर्म प्ररुप्यो होय तेम प्रवर्ते तो
तेने नवीनमार्ग केम कहेवाय? ... कुळसंबंधी विवाहादिक कार्योमां तो कुळक्रमनो विचार
करवो, पण धर्मसंबंधी कार्योमां तो कुळनो विचार न करवो, परंतु जेम सत्यधर्ममार्ग छे
तेम प्रवर्तवुं योग्य छे. (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ: २१९–२२०)