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भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे.
वळी जाणीने दुःखकारणो. एथी निवर्तन जीव करे.
बंधन अटकी जाय छे.
भेदज्ञान एटले अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान; तेनो स्वभाव ज क्रोधादिथी छूटा
भेदज्ञानने आस्रवोथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावीपणुं छे.
स्वभावपणुं छे तेथी तेमने एकता नथी पण भिन्नता छे.
रागथी जुदो पडे तो ज रागनुं खरुं ज्ञान थाय छे, रागमां एकता करे
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ना; द्रष्टिअपेक्षाए तो समकितीने मुक्त कह्यो छे. समकितीनी द्रष्टिमां
ना; आ भेदज्ञान करवुं ते मूळ वात छे. भेदज्ञान वगर कई तरफ झूकवुं्र ने
हा,! तो भगवान थवानुं कारण शुं राग होय? राग तो भगवानथी विरुद्ध
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आचार्य देव ज्ञानना महिमाथी कहे छे के अहो! परपरिणतिने छोडतुं अने
जेने उपयोगस्वरूप आत्मानो अनुभव नथी ते जीव भले गमे तेटलुं
जेने निर्विकल्प आत्मानो अनुभव छे ते जीव भले कदाच शास्त्रभणतर
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प्राप्त करी लीधो छे.
जेणे चिदानंद तत्त्वनो अनुभव कर्यो नथी, मोक्षने साधवानी रीतनी
मोहने जीती नहीं शके.
अने जेणे चिदानंद तत्त्वना आनंदनो अनुभव कर्यो छे ने मोक्षने साधी
जीतीने केवळज्ञान प्रगट करीने
पुण्यनो मार्ग अने धर्मनो मार्ग एक नथी पण जुदा छे; पुण्यनो मार्ग
मोक्ष छे.
शास्
ऊंचुं तो भई एवुं के आकाशने अडे.
बहादुर एवुं के सिंहने खोळामां रमाडे.
छतां नेमप्रभुनां चरणोमां तो ए नमी पडे.
एना बेकी नंबरना बंने अक्षरो सरखा.
जो न शोधी आपो तो तमे सौराष्ट्रना रहेवासी नहि.
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ज्ञान नथी तेने स्व–परनुं के परमात्मस्वरूपनुं ज्ञान नथी अने तेना ज्ञान वगर मोक्ष
सधातो नथी.
मोक्ष क््यांथी सधाय? माटे कहे छे के आगमज्ञान वगर मोक्षनी सिद्धि नथी.
बताव्युं छे अने आत्मानुं जेवुं परम स्वरूप आगममां बताव्युं छे तेवुं स्वरूप जाणतां
आत्माना सम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुभवरूप एकाग्रता प्रगटे छे, एवुं भावश्रुत ते खरुं
आगमज्ञान छे. आवा ज्ञान वडे मोहनो क्षय थाय छे, एटले तेने ज कर्मना क्षयरूप
मोक्षनी सिद्धि थाय छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मामां एकमां स्थिरता थाय छे. आवी एकाग्रता वडे शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप
मुनिपणुं थाय छे, अने तेने मोक्ष सधाय छे. पण हजी पदार्थनुं स्वरूप शुं छे तेनी जेने
खबर नथी ते तो परना कर्ता–भोकतापणानी अभिलाषामां रखडे छे, तेने स्वमां
एकाग्रता थती नथी, एटले मुनिदशा के मोक्ष तेने सधाता नथी.
आगमनी पर्युपासना करवी योग्य छे. आगमज्ञान तो शुद्धात्मानो स्वानुभव करावे छे.
जेने स्वानुभव नथी तेने साचुं आगमज्ञान कहेता नथी. आगमज्ञान
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वगरना जगतना जीवो आंधळा छे, वस्तुस्वरूपने तेओ देखी शकता नथी. मोक्षना
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परमात्मस्वरूपमां एकाग्र रहे छे. –आवा भावश्रुतचक्षुवडे तेओ सर्वतःचक्षुरूप
केवळज्ञानने साधे छे. अहीं मुनिओनी प्रधानताथी उपदेश छे, बाकी तो चोथा
गुणस्थानथी सम्यग्द्रष्टिने पण स्व–परना विवेकरूप भावश्रुतज्ञानचक्षु उघडी गयां छे,
ने तेना वडे ते पण मोक्षने साधी रह्या छे. मोक्षे जनारा जीवोने आगमचक्षु एटले के
भावश्रुत ज्ञान वडे शुद्धात्मानुं संवेदन होय छे.
ज्ञाननिष्ठपणुं तेमने नथी. शुद्धात्माना संवेदनवडे ज ज्ञाननिष्ठपणुं थाय छे, अने
तेनाथी ज केवळज्ञान सधाय छे. ज्ञानमां एकाग्रतावडे केवळज्ञान सधाय छे, पण ज्ञेयमां
एकाग्रतावडे केवळज्ञान साधी शकाय नहीं. एटले सर्वज्ञपदनी सिद्धिने माटे पहेलां ज्ञान
अने ज्ञेयनुं (अर्थात् स्व अने परनुं) स्वरूप बराबर जाणवुं जोईए. ज्ञान ज्ञेयोने
जाणे भले, पण तेथी ज्ञान कांई ज्ञेयरूप थई जतुं नथी. जडज्ञेयोने जाणे तेथी कांई ज्ञान
पोते जड थई जाय नहि. ज्ञान तो जडथी ने रागथी जुदुं, ज्ञानरूप रहीने ज तेमने जाणे
छे. जाणवुं ए तो ज्ञाननी ताकात छे, ज्ञाननो स्वभाव छे. आवा शुद्धज्ञानस्वरूप हुं छुं–
एम पोताना आत्माने स्वसंवेदनवडे अनुभवमां लईने तेमां एकाग्र थतां केवळज्ञान
प्रगटे छे; असंख्य चैतन्यप्रदेशे अनंता ज्ञानदीवडा प्रगटी जाय छे.
तेने तो आगमचक्षु ऊघडयां ज नथी एटले मोक्षमार्गने ते देखी शकतो नथी. अहो,
वितराग सर्वज्ञ परमात्माए जेवुं वस्तुस्वरूप कह्युं तेवा वस्तुस्वरूपनो निर्णय साचा
आगमज्ञान वडे थाय छे. आ आगमज्ञान एटले भावश्रुतज्ञान; तेमां समस्त पदार्थोनो
निर्णय करवानी ताकात छे. परथी भिन्न, उपयोगस्वरूप आत्मानी अनुभूति थई
त्यारे आगमचक्षु ऊघडयां, ने त्यारे जीवे मोक्षमार्गने देख्यो. आवा आगमज्ञानपूर्वक
साचुं तत्त्वार्थश्रद्धान् थाय छे, अने आवा ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक निजस्वरूपमां स्थिरतारूप
आचरण होय छे, –आवा श्रद्धा–ज्ञान–आचरण ते मोक्षमार्ग छे.
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तेम तेने जाणनारुं ज्ञान पण अनेकान्तस्वरूप छे; अने द्रव्यश्रुतमां पण तेने कहेवानी
ताकात छे. जाणवानी ताकात ज्ञानमां छे ने कहेवानी ताकात वाणीमां छे; विस्पष्ट
तर्कणारूप जे भावश्रुतज्ञान तेमां सर्वे पदार्थोने जाणवानी ताकात छे. मोक्षमार्गने
साधनारा श्रमण–मुनिराज तेमज श्रावको अने अव्रती सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माओ पण
आगमज्ञानथी स्व–परनुं यथार्थस्वरूप जाणनारा छे, स्व–परनुं भेदज्ञान करीने पोताने
शुद्धपणे (एकलो, परथी जुदो) अनुभवे छे. आगमचक्षुरूप जे भावश्रुत तेमां समस्त
पदार्थोनुं स्वरूप स्पष्ट जाणी लेवानी ताकात छे. जयां आगमज्ञान साचुं न होय, जयां
तत्त्वश्रद्धा चोकखी न होय त्यां संयमदशा होती नथी. –केमके स्व शुं अने पर शुं –एनी
तो एने खबर नथी, ज्ञान शुं अने कषाय शुं तेनी भिन्नतानुं तो भान नथी, ते तो
काया अने कषायोमां एकत्वबुद्धिथी वर्ते छे, तो तेने विषय–कषायोथी निवृत्तिरूप संयम
क््यांथी होय? अरे, हजी तो संयमदशा केवी होय एनी खबर पण जेने न होय तेने
मोक्षमार्ग केवो? ने मुनिपणुं केवुं? बापु! मुनिपणु ए तो हालतोचालतो मोक्षमार्ग छे.
मुनिदशा एटले साक्षात् मोक्षमार्ग. अहा, एना महिमानी शी वात! आ तो
वीतरागनो अलौकिक मार्ग छे, एमां मुनिदशा पण कोई अलौकिक छे. ज्ञान अने साची
श्रद्धा वगर ते मुनिदशा होती नथी.
भले, मुनि जेवो उग्र शुद्धअनुभव श्रावकने न होय, पण देहथी भिन्न अने रागादिथी
भिन्न उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा केवो छे तेनो अनुभव चोथा गुणस्थाने पण थई
गयो छे. आवा अनुभव उपरांत मुनिदशा केवी होय तेनी आ वात छे. रागथी ने
देहनी क्रियाथी धर्म माननारा अज्ञानी जीवोने तो श्रद्धानीये खबर नथी ने संयमनी
पण खबर नथी. चोथा गुणस्थाने पण पोताने शुद्धअनुभव थयो छे–तेनी धर्मीने
पोताने खबर पडे छे. ने एवा अनुभव पछी ज शुद्धात्मामां विशेष एकाग्रतावडे
मुनिदशा थाय छे. –आवा मुनिभगवंतोने ज मोक्षमार्गनी सिद्धि छे.
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ते तुं छो? –ना; तुं तो उपयोगस्वरूप छो. एवा तारा
स्वरूपने तुं ओळख. चार गतिनां घोर दुःखोथी जेने
छूटवुं होय तेणे अंदर विचार करीने उपयोगस्वरूप
आत्मा हुं छुं एम ओळखवुं जोईए.
ग्रहण करे छे ते गृहीतमिथ्यात्व छे. गृहीतमिथ्यात्व तो जीवे कोईकवार टाळ्युं पण
अगृहीतमिथ्यात्व तेणे पूर्वे कदी टाळ्युं नथी. त्यागी थयो ने शुभभाव करीने स्वर्गे गयो
त्यारे पण ते शुभरागमां धर्म मानीने तेना ज अनुभवमां अटकी गयो, तेनाथी जुदा
चेतनरूप आत्मानो अनुभव न कर्यो तेथी अगृहीतमिथ्यात्व तो टळ्युं नहि. कुदेवादिना
सेवनरूप गृहीतमिथ्यात्व तो छोडयुं, साचा देव–गुरुने तो मान्या, केमके ते वगर नवमी
ग्रैवेयक सुधी जाय नहि; ए रीते गृहीतमिथ्यात्व छोडवा छतां उपयोगस्वरूप शुद्धात्मानी
श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन प्रगट न कर्युं तेथी तेनुं मिथ्यात्व न छूटयुं ने संसारभ्रमण न
मटयुं; तेथी अहीं जीवादिनुं यथार्थ स्वरूप जाणीने मिथ्यात्व सर्वथा छोडवानो उपदेश
आपे छे.
दुःख नथी. आत्मा तो ज्ञान–आनंद ने शांतिथी भरेलो छे. देह तो रूपी छे, आत्मा
अरूपी छे. ‘विनमूरती’ एटले रूपीपणा वगरनो, अने ‘चिन्मूरति’ एटले चैतन्य
स्वरूप, –आवो आत्मा छे.
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भगवंतो विदेहक्षे
उपदेश्यो छे. आवा आत्माने देहथी भिन्न जाणीने विपरीत मान्यता छोडो.
आस्रवबंध प्रयोजनभूत नथी पण तेने छोडवा माटे तेनी ओळखाण करवी ते
प्रयोजनभूत छे. ओळख्या वगर तेने छोडशे केवी रीते? घरमां कोई दुश्मन प्रवेशी गयो
जीवादि साततत्त्वोनुं स्वरूप ओळखवुं. शुद्धद्रष्टिथी तेमां शुद्धजीव ज उपादेय छे. अजीव
तो भिन्न छे; आस्रव ने बंध ते दुःखनां कारणो छे; संवर–निर्जरा ते सुखनां कारणो छे;
नथी एनुं अनुपम जीवतत्त्व उपयोगरूप छे. आवा निजतत्त्वने ओळख्या वगर जीव
दुःख पाम्यो; तेने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व मटे ने दुःख छूटे. ‘हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं’
समयसारमां कुंदकुंदस्वामीए कह्युं छे के–
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सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे.’
‘शुद्ध–बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम. ’
–आम सर्वज्ञभगवाने जोयेलुं जीवनुं यथार्थस्वरूप सन्तोए जाते अनुभवीने
चेतना वगरनां पुद्गल वगेरे पांच द्रव्यो अजीव;
मिथ्यात्व अने राग–द्वेषना भावो–जेना वडे कर्मो आवे ने बंधाय ते आस्रव
–आवा तत्त्वोने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व टळे छे. तेथी पोताना हित माटे सात
नहि. माटे ते तत्त्वोने जाणीने ते संबंधमां विपरीतता टाळवी जोईए.
क््यांक तत्त्वनी भूल कर्यां वगर रहे नहि. ने भूल होय त्यां दुःख होय. मिथ्याश्रद्धाज्ञान–
चारि
अजीवने अजीव जाण्या वगर तेनाथी जुदो केवी रीते पडशे?
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अने मोक्ष पूर्ण सुखरूप छे तेने जाण्या वगर ते तरफनो प्रयत्न केवी रीते करशे?
आ रीते सुख अने तेनो उपाय, तथा दुःख अने तेनां कारणो –तेनुं ज्ञान
उपयोगने पाछो केम वाळे? शुभ–अशुभ बंने आस्रव होवा छतां तेने संवर मानी
ल्ये तो तेने छोडे क््यांथी? देहनी क्रिया पोतानी माने तो तेनाथी (अजीवथी)
भिन्नता कई रीते अनुभवे? सम्यग्दर्शनपूर्वकनी शुद्धता ते खरो संवर छे, तेने
बदले देहनी क्रियाने संवर माने के रागने संवर माने तो तेनाथी जुदो पोताने केम
अनुभवे? –आ रीते तत्त्वना ज्ञान वगर मिथ्यात्व टळे नहि. भगवान! तारुं
स्वरूप भगवाने केवुं कह्युं छे तेना भान वगर तारी भूल भांगशे नहि ने तारुं
भ्रमण मटशे नहि. आत्माना ज्ञान वगर शुभभाव करीने स्वर्गे गयो त्यारे पण
अगृहीतमिथ्यात्व भेगुं लईने गयो, एटले त्यां पण दुःखी ज थयो. आत्माना
भान वगर क््यांय सुखनो स्वाद आवे नहि.
अमूर्त आत्मा बधानो जाणनार छे. जाणनारने पुण्य–पापरूप मानवो के देहरूप
मानवो ते मिथ्यात्व छे. तेणे जीवने उपयोगस्वरूप न मान्यो पण अजीवरूप ने
आस्रवरूप मान्यो, एटले तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा थई. जीवे साचा तत्त्वोने कदी
ओळख्या नथी, तेमां भेळसेळ करीने गोटा वाळ्या छे. जाणनार तत्त्व जडनी पण
क्रिया करे एम केम बने? उपयोगनी क्रिया जडरूप केम होय? –न ज होय. चेतनमां
वर्ण–गंध–रस–स्पर्शरूप मूर्तपणुं नथी, ते तो उपयोगरूप अमूर्त छे; एनी
ओळखाण वडे ज सम्यग्दर्शन थाय छे ने मिथ्यात्व टळे छे. माटे संतोए करुणा
करीने तेनो उपदेश दीधो छे.
प्रमाणे सर्वज्ञभगवाने जोयेला उपयोगरूप जीवने जाणे तो बधा खुलासा थई जाय ने
तत्त्वोनी विपरीतता मटी जाय. उपयोगरूप आत्मा अजीव नथी एटले अजीवनी क्रिया
ते करतो नथी.
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ने तेनी शक्तिथी तेनामां रूपांतर हलनचलन वगेरे थाय छे. माटे जीव अने
अजीवनी भिन्नता जाणवी. ते बंनेने भिन्न ओळखतां तत्त्वनी भूल टळे छे ने
यथार्थ श्रद्धा थाय छे.
छे. आ छ प्रकारनां द्रव्योमां जीव सिवायनां पांचे अजीव छे; ने पुद्गल सिवायना
पांचे अमूर्त छे. जगतमां आ छ ए प्रकारनां द्रव्यो सर्वज्ञदेवे स्वतं
आत्मामां सर्वज्ञस्वभाव छे–जे बीजा शेमांय नथी; शरीरमां नथी, रागमां नथी,
एवो उपयोग ते जीवनुं लक्षण छे. अलौकिक वस्तु आत्मा छे, तेना स्वभावने
बीजा कोई बाह्य पदार्थनी उपमा आपी शकाती नथी; पोताना अनुभव वडे तेने
जाणी शकाय छे. आवा आत्माने स्वानुभवथी जाणे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय.
सम्यग्दर्शन वगर सम्यग्ज्ञान के सम्यक्चारि
आंख वगरनो माणस शोभे नहि, तेम जीवनी आंख तो उपयोगरूप ज्ञान–दर्शन
छे, पुण्य–पाप ते कांई जीवनी आंख नथी; आ बहारनी आंख तो जड छे.
उपयोगस्वरूप निज आत्माने जाणवा–देखवारूप सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञानचक्षु
जेने खुल्यां नथी तेनी शुभक्रियाओ पण धर्ममां शोभती नथी, अर्थात् ते धर्मनुं
कारण थती नथी पण संसारनुं ज कारण थाय छे. पोते पोताने न देखे–न जाणे
एने धर्म केवो? सम्यक्त्वरूपी धर्मनी आंख ज तेने ऊघडी नथी.
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भिन्नता जाणवी. –आम जाणे त्यारे तत्त्वोने जाण्या कहेवाय. पण शरीरने के रागने
आत्मानुं स्वरूप माने तो तेणे तत्त्वोने जाण्या नथी. जीव अने अजीव ए बे मूळ तत्त्वो
छे, ने बाकीनां तत्त्वो ते तेनी अशुद्ध के शुद्ध पर्यायो छे. आ सात तत्त्वोने ओळखे तो
तेमां अजीवथी पोतानी भिन्नता जाणीने, पोताने उपयोगस्वरूप जाणे, एटले अजीव
साथे एकताबुद्धि छोडीने शुद्ध जीवस्वभावनो आश्रय करतां मिथ्यात्वादि आस्रव–बंध
टळे छे ने सम्यक्त्वादिरूप संवर–निर्जरा–मोक्षदशा प्रगटे छे. माटे सात तत्त्वोने जाणवा
खास जरूरना छे. अरे, अत्यारे तो लोकोमां सात तत्त्वोनुं ज्ञान भूलाई गयुं छे.
अनादिथी जीवे सात तत्त्वोने सरखा जाण्या नथी. आ तो वीतरागवाणीमां मुळ मूदनी
वात छे. सात तत्त्वोमां हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं–एम ओळखवुं, –जेथी मिथ्यात्व टळे
ने सम्यक्त्व थाय.
उपयोगस्वरूप आत्मा हुं छुं एम ओळखवुं जोईए. शास्त्रकारोए करुणा करीने ते
स्वरूप समजाव्युं छे.
प्रमाणे वांचवुं के ‘जयां मेरु पर्वतनी टोच छे त्यां पहेला स्वर्गनुं तळीयुं
छे, बंने वच्चे मा
आभार! )
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चारि
स्वरूप देखे तो ज तेने साधी शके.
अने विशिष्ट पुण्यप्रकृतिवडे एवा रत्न
वर्णव्युं छे, ने तेना आधारे ज कथाओ लखाय छे.
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वांचो – ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तक.
प्रत्येनी तमारी उत्तम लागणीओ बदल धन्यवाद! धार्मिक भावनाओमां
उत्साहथी खूब खूब आगळ वधो.
सूचक केरी मळतां आनंद थयो. आ केरी तो एवी के सदाय खवाय. एनो स्वाद पण
एवो के जे चाखतां सिद्धपद पमाय! (साथे बे बहेनोनो संवाद पण मळ्यो छे.)
खुद अमेरिकाना प्रमुख निकसनना शब्दोथी आवी शकशे: तेमणे पोताना
प्रवचनमां हमणां कह्युं हतुं के– ‘आपणे (अमेरिकनो) भौतिक रीते संपन्न
बन्या छीए पण
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सोनगढमां प्रौढवयना जिज्ञासु जैनभाईओ माटेनो शिक्षणवर्ग दर वर्षनी जेम
सुद पांचम मंगळवार ता. १६ सुधी राखवामां आव्या छे.
ना रोज थशे, (वच्चे एक तिथि घटती होवाथी एक दिवस वहेला शरू थाय छे)
अने भादरवा सुद १४ बुधवार ता. २४–९–६९ना रोज पूर्ण थशे.
कानजीभाई घीया तरफथी (प्रभुलालभाईनी स्मृतिमां) भेट आपवानुं छे. आ
पुस्तकमां समयसार गा. ३२० (जयसेनस्वामी रचित टीका) उपरनां पू.
गुरुदेवनां प्रवचनो छपायेलां छे.
सुधीमां संपादकने जणावी देवुं. (साथे पूरुं सरनामुं अने ग्राहक नंबर लखवो.)
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* दाहोदमां ता. ११–७–६९ ना
तेओ आत्महित पामो.
* अमरापुर (गीर)ना युवान भाईश्री
सहित नमोक्कारमंत्र नववार गणजो.)
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पोताना कुळधर्ममां प्रवर्ते छे ते ज प्रमाणे आ पण प्रवर्ते छे.
विचारी, काळदोषथी जैनधर्ममां पण पापी पुरुषोए कुदेव–कुगुरु–कुधर्म सेवनादिरूप वा
विषय–कषायना पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलावी होय तेनो त्याग करी,
जिनआज्ञाअनुसार प्रवर्तवुं योग्य छे.
उत्तर: जो पोतानी बुद्धिथी नवीन मार्गमां प्रवर्ते तो ते योग्य नथी, परंतु
वच्चे कोई पापी पुरुषोए अन्यथा प्रवृत्ति चलावी होय, तेने परंपरामार्ग केवी रीते
कहेवाय? तथा तेने छोडी पुरातन जैन शास्त्रोमां जेवो धर्म प्ररुप्यो होय तेम प्रवर्ते तो
तेने नवीनमार्ग केम कहेवाय? ... कुळसंबंधी विवाहादिक कार्योमां तो कुळक्रमनो विचार
करवो, पण धर्मसंबंधी कार्योमां तो कुळनो विचार न करवो, परंतु जेम सत्यधर्ममार्ग छे
तेम प्रवर्तवुं योग्य छे. (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ: २१९–२२०)