Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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वीतरागविज्ञाननी प्रसादी

[
छहढाळा उपर पू. गुरुदेवनां प्रवचनो वीतरागविज्ञानना छ पुस्तकरूपे
प्रकाशित थई रह्या छे, पहेलुं पुस्तक प्रगट थई गयेलुं छे. (किंमत पचास पैसा) बीजुं
पुस्तक छपाय छे. तेमांथी थोडोक नमूनो अहीं आप्यो छे.
]
जयां–ज्यां सम्यग्दर्शनादि छे त्यां ज सुख छे अने जयां–ज्यां मिथ्यात्वादि छे त्यां
दुःख ज छे;–पछी नरक हो के स्वर्ग हो. तिर्यंचमां के नरकमां, स्वर्गमां के मनुष्यमां, –बधे
ठेकाणे दुःखनुं कारण तो जीवना मिथ्यात्वादि भाव ज छे. कर्म तो मात्र निमित्त छे, जीवथी
ते भिन्न छे. भाई! तारा ऊंधा भाव अनुसार कर्म बंधायु एटले रखडवानुं खरूं कारण
तारो ऊंधो भाव ज छे; ते ऊंधो भाव छोड तो तारुं परिभ्रमण मटे. सम्यग्दर्शन वगर
जीवनुं परिभ्रमण कदी टळे नहीं. भाई, मिथ्यात्वने लीधे जन्म–मरणनां घणां दुःखो तें
भोगव्यां, माटे हवे तो ते मिथ्यात्वादिने छोड... छोड. आ उत्तम अवसर तने मळ्‌यो छे.
शुभरागथी स्वर्ग मळे, पण शुभरागथी कांई आत्माना सम्यग्दर्शनादि गुण न
मळे. राग ते दोष छे, ते दोष वडे गुणनी प्राप्ति केम थाय? मिथ्यात्व अने रागद्वेष ते
पोते दुःख छे, तेनुं फळ दुःख छे. तो ते मोक्षसुखनुं कारण केम थाय? – न ज थाय.
वीतरागविज्ञान ते सुख ने रागद्वेष–अज्ञान ते दुःख, आम जाणीने हे जीव! दुःखना
कारणोथी तुं पाछो वळ, ने वीतरागविज्ञान प्रगट कर.
***
पोते पोताना चैतन्यप्रभुने देखवानी दरकार ज जीव क््यां करे छे? नवरो होय,
कांई काम न होय तोपण कांईक धर्मना वांचन–विचारने बदले मफतनो पारकी चिन्ता
कर्यां करे छे. पार वगरनी पारकी चिन्तामां व्यर्थ काळ गुमावे छे पण आत्माना हितनी
चिन्ता करतो नथी अरे! शुं हजी तने भवनां दुःखनो थाक नथी लागतो? भाई! आ
मनुष्यपणामांय नहि चेत, तो पछी क््यारे चेतीश?
संसारमां भमतां जीवे रौ–रौ नरकनां दुःखो पण भोगव्यां ने स्वर्गमां देव थईने
त्यां पण दुःख ज भोगव्युुं; पाप अने पुण्य एवा कषायचक्रमांथी बहार नीकळीने ते
सम्यग्दर्शनादि वीतरागभावमां ते कदी न आव्यो. अहीं आचार्यदेव वीतरागविज्ञान
समजावीने संसारदुःखथी छोडावे छे.
आवी शैलीना सुगम उपदेश माटे वीतरागविज्ञान–पुस्तको वांचो.
***