Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १ :
आसो सुधीनुं वीर सं. २४९प
लवाजम द्वितीय अषाढ
वर्ष २६ : अंक ९
आत्मिकरुचि है अनंत सुखसाधिनी
परम अखंड ब्रहमंड विधि लखे न्यारी, करम विहंड करे महा भवबाधिनी,
अमल अरूपी अज चेतन चमतकार, समैसार साधे अति अलख अराधिनी,
गुणको निधान अमलान भगवान जाको प्रत्यक्ष दिखावे जाकी महिमा अबाधिनी,
एक चिद्रूपको अरूप अनुसरे ऐसी, आतमीक रुचि है अनंत सुखसाधिनीाा६ाा
आत्मिक रुचि अनंत सुखने साधनारी छे; – केवी छे ते
रुचि? परम अखंड चैतन्य ब्रह्मने ते कर्मथी भिन्न देखे छे, कर्मने
खंड खंड करी नांखे छे, भवभ्रमणनी अत्यंत बाधक छे अर्थात्
भवभ्रमणने रोकनारी छे, निर्मळ अरूपी अविनाशी चैतन्य
चमत्कारने देखनारी छे, शुद्ध आत्मारूप समयसारने अत्यंतपणे
साधनारी छे, ने अलख–अतीन्द्रिय चैतन्यने आराधनारी छे; गुणनो
निधान अने संकोचरहित एवो जे भगवान आत्मा तेने ते प्रत्यक्ष
देखाडनारी छे, ते आत्म–रुचिनो महिमा अबाध्य छे, –कोईथी ते
बाधित थतो नथी. अने ते रुचि एक अरूपी चैतन्यस्वरूपने ज
अनुसरनारी छे. – आवी आत्मरुचि अनंत सुखने साधनारी छे.
(कवि दीपचंदजी शाह रचित ज्ञानदर्पमांथी)