Atmadharma magazine - Ank 312
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म Regd. No. G 182
अभयपद
• शिष्य पूछे छे: हे नाथ! अभयपदनी
प्राप्तिनो उपाय शुं?
• श्री गुरु कहे छे: हे वत्स! उपयोगने
अंतर्मुख करीने आत्मानुं अवलोकन
करतां अभयपद पमाय छे. आ
आत्मा ज अभयधाम छे.
अभय आतमराम छे,
त्यां बीजानुं शुं काम छे.
धर्मीनो उत्साह
धर्मीनो उत्साह चैतन्यस्वरूप तरफ वळी
गयो छे. रागादि बर्हिभावो प्रत्ये के
देहादिनी चेष्टा प्रत्ये तेनो उत्साह छूटी
गयो छे. –आवा धर्मी जीवो आत्मिक
उत्साह वडे अल्पकाळमां आनंदमय
मोक्षने साधे छे.
बोधस्वरूप
हुं बोधस्वरूप छुं; अने जगतना
बधाय जीवो बोधस्वरूप छे.
–आम बोधस्वरूप आत्मानी भावना भाववी
ते वीतरागतानो उपाय छे.
गुलामी क््यारे छूटे?
देहानी चेष्टाने पोतानी माननार अज्ञानी तो ईंद्रियोनो दास एटले के
विषयोनो गुलाम थईने वर्ते छे. ने देहथी भिन्न आत्माने जाणनारा ज्ञानी तो ते
विषयोथी उदास थईने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदने उपासे छे.
देहथी आत्मानी भिन्नता जाणे त्यारे ज विषयोनी गुलामी छूटे.
मोक्षनुं द्वार
• पुण्यथी मोक्षनुं द्वार खुलशे? ना,
• जो पुण्यने मोक्षनुं कारण मानीश तो
तारा मोक्षनां द्वार बिडाई जशे.
• मोक्षनुं द्वार तो, पुण्य–पाप वगरनुं
सम्यग्दर्शन छे; तेनाथी ज मोक्षनुं
द्वार खुलशे.
वीतरागता
चैतन्यस्वरूप अवलोकनमां
रागद्वेषनो अभाव छे तेथी त्यां कोई मित्र
के शत्रु नथी.
चैतन्यधाम के ज्यां अन्य द्रव्यनो
अभाव छे, तेना अवलोकनमां कोनो
राग? ने कोनो द्वेष? त्यां तो वीतरागी
आनंदनी ज अनुभूति छे.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक: मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट़्र) प्रत: २७००