प्रवचनसारनी पूर्णता...पंचास्तिकायनो प्रारंभ
(सोनगढ कारतक सुद पांचम)
प्रवचनसार पूर्ण करतां आचार्यदेव कहे छे के हे जीवो! हे परम आनंदना
पिपासुओ! तमे आवो रे आवो! अहीं परम आनंदना अमृतथी भरेली केवळज्ञाननी
महा नदी वहे छे. आवी केवळज्ञान अने आनंदथी भरेली नदीमां डुबेलुं जे उत्तम
चैतन्यरत्न उल्लसी रह्युं छे तेने तमे आजे ज अनुभवमां ल्यो.
जे ज्ञान–आनंदमय तत्त्व छे ते ज स्वतत्त्व छे; पोताना आवा महान
चैतन्यरत्नरूप स्वतत्त्वने हे जीवो! तमे आ जिनमार्गमां आजे ज प्राप्त करो. आ
आनंदमय चैतन्यतत्त्व ज जगतमां सर्वोत्तम तत्त्व छे. तेने आजे ज आनंदथी अनुभवो.
पंचास्तिकायनो प्रारंभ करतां आचार्यदेव कहे छे के ते परमात्माने नमस्कार हो–
के जेमनी महानता सहज आनंद अने चैतन्यप्रकाशने लीधे छे. आत्मानो सहज ज्ञान–
आनंद स्वभाव छे, तेनी महानता भासी एटले रागनी महानता न रही, रागथी
भिन्नता थई, ते मंगळ छे. परने करवा वडे के राग वडे आत्मानी महत्ता नथी. सहज
चैतन्य अने सहज आनंद, तेना वडे ज आत्मानी महानता छे आवा ज्ञान–आनंदने
पामेला परमात्माने ओळखतां पोताना आत्माने पण तेवो ज, रागादिथी जुदो ज्ञान–
आनंदमय जाण्यो; ते अपूर्व मंगळ थयुं. जेमनी अत्यंत मधुर, हितकर वाणी परमार्थ
रसिक जीवोने विशुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धिनो उपाय बतावनारी छे, अने भवने
जीतीने जेओ जितभव थया छे, एवा जिनदेवने नमस्कार करीने, आचार्यदेव भगवाने
कहेला पंचास्तिकायरूप अर्थ कहे छे,–के जेने ओळखतां चारगतिनो नाश थईने जीवने
स्वतंत्रतारूप निर्वाणनी प्राप्ति थाय छे. माटे आ आगमने हे भव्यजीवो! तमे
भक्तिपूर्वक सांभळो.
*परम आनंदरूपे परिणमवानुं कहीने प्रवचनसारनी पूर्णता करी.
*सहज आनंदमय परम आत्माने नमस्कार करीने पंचास्तिकायनो प्रारंभ कर्यो.
आत्मधर्मनुं लवाजम रूा. चार भरीने हजी सुधी आप ग्राहक न थया हो
तो तुरतमां ज ग्राहक बनो...जेथी भेट पुस्तकसहित पुरा अंको आप मेळवी शको.
–आत्मधर्म कार्यालय
सोनगढ (सौराष्ट्र)