Atmadharma magazine - Ank 314
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं: ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
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संसार दशामां–
संसार दशामां अज्ञानी जीव
पोते एकलो ज दुःखी छे; कोई बीजो
तेनुं दुःख मटाडी शकतो नथी. पोताना
भावथी ज पोते दुःखी छे, कोई बीजाने
कारणे नहीं.
मोक्षमां पण एकलो
हे मुमुक्षु! तारे मोक्ष साधवो छे;
मोक्ष एकला सधाय छे, कोईने साथे
राखीने नहीं. एकत्वस्वरूप आत्माने
अनुभवतां मोक्ष सधाय छे. माटे एवा
अनुभव वडे मोक्षमां एकलो जा.
परम सुखनुं धाम...ज्यां जरापण दुःख
नथी, ज्यां सुखने माटे खोराकनी के
पाणीनी, हवानी के दवानी कदी जरूर
पडती नथी, ज्यां काळनो कोई
प्रतिबंध नथी, के मृत्युनो पण ज्यां
प्रवेश नथी, आत्मा एकलो एकलो
स्वाधीन सुखने सदाय ज्यां भोगव्या
करे छे–एवा सिद्धपदने साधवा हे
जीव! तुं तत्पर था.
सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी,
आराध! आराध! प्रभाव आणी;
अनाथ एकांत सनाथ थाशे,
एना विना कोई न बांह्य स्हाशे.
ज्यां दुःख कदी न प्रवेशी शकतुं
त्यां निवास ज राखीए.
सुखस्वरूप निज आत्मने बस,
ज्ञाता थईने झांखीए.
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श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत : २७००