Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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हे आत्मा! तुं ऊर्ध्व–मध्य ने अधोलोकनुं विचित्र स्वरूप विचारीने, लोकमां सर्वोत्कृष्ट
महिमावंत एवा तारा आत्मामां स्थिर था, के जेथी तारुं लोकभ्रमण अटकीने स्थिर
सिद्धदशा प्रगटे. लोकनो एक पण प्रदेश आधो–पाछो थतो नथी; तेमज लोकमां एक पण
द्रव्यनी संख्यामां वधारो के घटाडो थतो नथी.
११. बोधिदुर्लभ भावना
जीवने मनुष्यपर्याय, उत्तमकुळ, निरोगशरीर, दीर्घ आयुष्य, जैनशासन, सत्संग
अने जिनवाणीनुं श्रवण–ए बधुंय मळवुं उत्तरोत्तर दुर्लभ छे. भाग्यवशात् ए बधुं
मळवा छतां धर्मबुद्धि जागवी ते दुर्लभ छे. ए बुद्धि जाग्या पछी अंतरमां सम्यक्त्वनुं
परिणमन थवुं ते परम दुर्लभ–अपूर्व छे. सम्यक्त्व पछी मुनिधर्मने धारण करवो ते
दुर्लभ छे अने मुनिधर्म पछी स्वरूपमां स्थिर थईने केवळज्ञान प्रगट करवुं ते सौथी
दुर्लभ छे.
माटे हे आत्मा! तुं आ महा दुर्लभ योगने पामीने हवे अति अपूर्व एवा
आत्मबोधने माटे प्रयत्नशील था. ते परम दुर्लभ होवा छतां श्री गुरुचरणना
प्रसादथी आत्मरुचिना बळे तने ते सहज सुलभ थई जशे. ते सम्यक्त्वने प्रगट
करवुं ते ज साचो लाभ छे, ते ज साचुं सुख छे. सम्यक्त्व प्रगट करतां तारो बेडो
पार थई जशे. ए परम दुर्लभ सम्यक्त्वरूपी बाण वगर आ जीव योद्धो संसारमां
घूमी रह्यो छे. जेम योद्धा पासे कामठुं होय पण जो बाण न होय तो ते लक्ष्यने
वेधी शकतो नथी, जेम जीवयोद्धा पासे ज्ञानना उघाडरूपी कामठुं होय पण जो
लक्ष्यवेधक बाण एटले के चैतन्यने लक्षमां लेनारुं सम्यक्त्व न होय तो ते मोहने
वींधी शकतो नथी, ने संसारथी छूटी शकतो नथी. माटे हे जीव! तुं ते
सम्यक्त्वरूपी तीक्ष्ण तीर वडे मोहने भेदी नांख,–जेथी संसारनी जेलमांथी
छूटकारो थई जाय, ने मोक्षसुख प्रगटे.
१२. धर्मभावना
सम्यग्दर्शनादिरूप जे धर्म छे तेनाथी आ जीवने सुखनी प्राप्ति थाय छे. धर्म
तो आत्माना ते भावनुं ज नाम छे के जे आत्मभाव जीवने दुःखअवस्थाथी
छोडावीने सुखरूप शिवधाममां स्थापे. माटे हे आत्मा! तुं मोहभावथी उत्पन्न
थयेला विकल्पोने छोडीने शुद्ध चैतन्यरूप तारा आत्मानुं दर्शन करीने तेमां लीन था,
ए ज धर्म छे