छे क्रोध क्रोधमहीं ज निश्चय, क्रोध नहीं उपयोगमां.
आवुं अविपरीत ज्ञान ज्यारे उद्भवे छे जीवने,
त्यारे न कंई पण भाव ते उपयोग शुद्धात्मा करे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र द्वारा कर्मोनी निर्जरा थाय छे. जेम धगधगता
प्रतापथी विकार बळी जाय छे, ने कर्मो झरी जाय छे. निर्जरा बे प्रकारनी छे–तेमां
सविपाक निर्जरा तो बधा जीवोने थाय छे; अविपाक निर्जरा सम्यग्द्रष्टि, व्रतधारी,
मुनिओने ज थाय छे. अने ते ज आत्माने कार्यकारी छे. माटे हे आत्मा! तुं
आत्मध्याननी उग्रतावडे अविपाक निर्जराने आचर, के जेथी पंचमज्ञानी थतां तने
वार न लागे. अहो! सम्यग्दर्शन थतां ज अनंती निर्जरा शरू थई जाय छे, अने
आ क्षणे ज एटलुं तो जरूर कर. तारा स्वभावनुं सम्यग्दर्शन पण धीमेधीमे
आठेय कर्मोने बाळीने खाख करी नांखशे.
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.
आ लोक (जगत) कोईनो बनावेलो नथी, कोई तेनो नाश करी शकतुं नथी.
अनंत अलोकने वचमां जेम आ लोक निरालंबी स्थित छे, तेम लोकमां तारो आत्मा
पण कोईना आलंबन वगरनो छे. माटे परालंबीबुद्धि छोडीने तुं तारा आत्माने ज
अवलंब, के जेथी तारी लोकयात्रा पूरी थाय, अने लोकनुं सर्वोत्कृष्ट स्थान तने मळे. केड
उपर हाथ टेकवीने अने पग पहोळा करीने उभेला पुरुषनी समान आ लोकनो आकार
छे.–एवा आ लोकमां जीव सम्यग्दर्शन अने समभाव विना ज अनंतकाळथी आम–तेम
घूमी रह्यो छे. माटे