Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : : पोष : २४९६
६. अशुचि भावना
आ शरीर तो अशुचिनो पटारो छे, मांस–हाडका–लोही–परू वगेरेथी बनेलुं
छे, तेनां नवद्वारमांथी घृणाजनक मेल वह्या करे छे; चंदनादि उत्तममां उत्तम
वस्तुओ पण आ शरीरनो संबंध थतां ज दूषित थई जाय छे. तो पछी अरे
आत्मा! तुं आवा अशुचिना स्थानरूप शरीर उपर मोह अने प्रेम केम करे छे!!–
ए तारी मोटी भूल छे के तुं आ मलिन देहमां मूर्छाई रह्यो छे. क््यां तो तारुं
निर्मळ स्वरूप क््यां एनो मलिन स्वभाव! माटे शरीरने हेय समजीने तुं शीघ्र
तेना उपरथी मोह छोड, अने तारी ज्ञानगंगामां स्नान करीने पावन था. एमां
तारी बुद्धिमत्ता छे.
७. आस्रव भावना
दरियामां पडेली छेदवाळी नौकामां जेम सतत पाणी आव्या करे छे तेम मोहरूपी
छिद्र द्वारा आत्मामां कर्मो आव्या करे छे. कर्मोना आववामां प्रधान कारण मिथ्यात्व छे
हे आत्मा! आ आस्रव ज तने संसारसमुद्रमां डुबाडनार छे, माटे तुं चैतन्यनी जागृति
वडे आस्रवोने छोड, अने निरास्रवी था. एम करवाथी ज तारी आत्मनौका आ
भवसमुद्रथी पार थशे, ने तारुं कल्याण थशे.
८. संवर भावना
आस्रवने अटकाववो ते संवर छे सम्यग्दर्शनपूर्वकना आत्मध्यानथी ते
संवर थाय छे. प्रथम ज सम्यग्दर्शन मात्रथी ज अनंत संसारनो संवर थई जाय
छे. संवर थतां फरीने आ आत्मा संसारमां भटकतो नथी; तेने मोक्षनो मार्ग मली
जाय छे. माटे हे आत्मा! हवे तुं संसारना झंझटोने छोडीने ते पुनित संवरनो
आश्रय कर.
मिथ्यात्व आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे,
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे.
भवचक्रमां भमतां कदी, भावी नथी जे भावना,
भवनाश करवा काज हुं भावुं अपूरव भावना.