स्वविषयने भूलीने तुं सदाय अतृप्तपणे ज मर्यो छे. माटे हे आत्मा!! हवे तुं
विषयलालसा छोडीने आत्मस्वरूपमां तारा चित्तने जोड. आ दुःखमय संसारचक्रथी
छूटवानो साचो उपाय फक्त आ एक ज छे के तुं बाह्य विषयोना मोहने छोडीने
आत्मध्यानमां लीन था.
आ जीव एकलो ज आवे छे, एकलो ज जन्म–मरणना दुःखो भोगवे छे, एकलो
छे. अने एकलो ज मरे छे. आ जीवने सुखमां के दुःखमां कोईपण साथी नथी. अरे
जीव! जे कुटुंब वगेरेने तुं तारां समजे छे ते खरेखर तारां नथी, कुटुंब वगेरे तो दूर
रहो, पण जे शरीरने पुष्ट कर्युं अने जेनी साथे चोवीसे कलाक रह्यो ते शरीर पण साथे
नथी आवतुं तो बीजुं तो कोण आवशे! माटे हे आत्मा! तुं बीजाने माटे पापनो बोजो
तारा शिर उपर बांधी रह्यो छे! तुं सदा एकलो ज छो, माटे बधानो मोह छोडीने एक
तारा आत्माने ज चिंतव.
जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि लहे. १०१
मारो सुशाश्वत एक दर्शन–ज्ञान–लक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. १०२
जळ अने दूधनी माफक शरीर अने आत्मानो मेळ देखाय छे, पण जेम खरेखर
तेमने एकमेक समजवा ते तो भूल छे. तारो तो ज्ञायकभाव छे, चारित्रभाव छे;
रत्नत्रयस्वरूप आत्मा ज तारो छे. माटे कोई अन्यना आश्रये शांति थशे एवी आशा
छोडीने तुं तारा एकत्वस्वरूपमां आव. तारी एकताथी तारी शोभा छे, अन्यथी तारी
शोभा नथी. अन्यथी भिन्न अनन्यस्वरूप आत्माने भाव.