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लक्ष्मी–शरीर सुखदुःख अथवा शत्रु–मित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग–आत्मक जीव छे.
छेदाव वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव, पण परिग्रह नथी मारो अरे.
भरत चक्रवर्ती जेवा छ खंडना धणी पण ज्यां नित्य नथी रह्या तो पछी अरे
जीव! तुं कोनाथी स्नेह करे छे!–कोने पोतानुं समजे छे! ध्रुव चैतन्य सिवाय बीजी कोई
पण चीजने पोतानी समजवी ते फक्त तारी मूर्खता ज छे. माटे एवी व्यर्थ
विकल्पजाळमां न पडतां, तुं आत्मचिंतनमां लाग, तेमां ज जीवननी सार्थकता छे.
२. अशरण भावना
जेम भूख्या सिंहना पंजामां पडेला हरणना बच्चांनी कोई रक्षा नथी करी
शकतुं, तेम मृत्युना मुखमां पडेला प्राणीनी पण कोई रक्षा नथी करी शकतुं. कोई
एम कहे के अमे तो लोखंडना मकानमां राखीने, शस्त्रथी, धन वगेरेथी जीवनी रक्षा
करी देशुं! अथवा कोई औषध–मंत्र–तंत्रथी जीवने बचावी देशुं!–तो तेनुं ए कथन
मात्र बकवादरूप छे. वास्तवमां, जेनुं आयुष्य पूरुं थयुं तेनी कोई रक्षा करी शकतुं
नथी. कोई देव, कोई ईन्द्र के सुरेन्द्र वगेरे रक्षा करी शके छे ए पण कथनमात्र छे;
केमके तेओ ज्यां पोते पोतानी ज रक्षा करी शकता नथी तो बीजानी रक्षा क्यांथी
करशे! अनित्यता–पणे परिणमता पदार्थने कोई रोकी शकवा समर्थ नथी. माटे हे
आत्मा! तुं ए बधाना शरणनी बुद्धि छोड. अने तारा अविनाशी चैतन्यरूप
आत्मानुं तुं शरण ले; ए ज तारुं साचुं शरण छे, ए सिवाय बीजा बधानुं शरण
तो जूठुं छे.
३. संसार भावना
द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भव अने भावरूप संसारमां आ आत्मा निजस्वरूपने
समज्या विना चक्कर लगावी रह्यो छे; क््यारेक आ गतिमां तो क््यारेक बीजी
गतिमां, क््यारेक राजा तो क््यारेक रंक, क््यारेक देव तो क््यारेक नारकी, क््यारेक
द्रव्यलिंगी साधु तो क््यारेक कषाई,–एम बहुरूपी थईने घूमी रह्यो छे; पंचविध
परावर्तनमां एकेक परावर्तननो अनंतकाळ छे. ते पंचपरावर्तन आ जीवे एक ज
वार नहि पण अनंतवार