Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९६ : २९ :
शत्रुंजय उपर–
पांडव मुनिवरोए भावेली वैराग्यभावना
शत्रुंजय उपर स्थित पांडव मुनिवरो उपर
ज्यारे घोर उपसर्ग आव्यो त्यारे निजस्वरूपथी डग्या
वगर वैराग्यपूर्वक तेमणे बार भावनाओनुं चिंतन
कर्युं. आवी भावनापूर्वक त्रण पांडवो तो निर्विकल्प
चैतन्यअनुभवमां लीन थईने केवळज्ञान प्रगट करी
मोक्ष पाम्या. दरेक जीवे वस्तुस्वरूपना चिंतनवडे आवी
वैराग्यभावना भाववा जेवी छे. पांडवपुराणना
आधारे ते भावना अहीं आपवामां आवे छे.
प्रथम तो, अग्निवडे सळगता शरीरने देखीने ते धीरवीर पांडवोए क्षमारूपी
जळनुं सींचन कर्युं; पंचपरमेष्ठी अने धर्मना चिंतन वडे आत्मध्यानमां द्रढता करी.
तेओ जाणता ज हता के आ अग्नि कांई अमारा आत्माने बाळी शकतो नथी,
केमके आत्मा तो देहथी भिन्न शुद्ध–चैतन्यस्वरूप, अरूपी छे. आ मूर्तिक शरीरने
अग्नि भले बाळे, तेमां अमारुं शुं नुकशान छे? आ प्रमाणे शरीरथी भिन्न
आत्माना चिंतन वडे महान उपसर्गविजयी पांडव मुनिराजोए ध्यानरूपी अग्नि
प्रगट कर्यो. बहारमां तो अग्निवडे शरीर भस्म थाय छे, ए ज वखते अंतरमां
ध्यानाग्नि वडे कर्मो भस्म थाय छे. ते वखते शत्रुंजयगिरि उपर पांडव मुनिवरोए
भावेली बार वैराग्यभावना आ प्रमाणे छे–
१. अनित्य भावना
संसारमां जीवन क्षणभंगुर छे. वादळांनी जेम जोतजोतामां ते विलीन थई
जाय छे. धन–दोलत–मकान–कुटुंब–शरीर जे कांई देखाय छे ते बधुं नश्वर छे,
भोगोपभोग अनित्य छे, ते कोईनी साथे पण प्रीति नथी करता, पुण्यशाळी
चक्रवर्तीने पण ज्यां सुधी पुण्यनो उदय रहे छे त्यां सुधी ज ते सामग्री रहे छे,
पुण्य जतां तो ते पण रफुचक्कर थई जाय छे. जगतमां एक पोतानो आत्मा ज
एवी चीज छे के जे सदा शाश्वत रहे छे, जेनो कदी वियोग थतो नथी. माटे हे
आत्मा! तुं समस्त बाह्य वस्तुओथी ममत्व हठावीने स्वमां ज स्थिर था...ए ज
चीज तारी छे.