Atmadharma magazine - Ank 315
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 31 of 45

background image
: २८ : : पोष : २४९६
पांच ईन्द्रियना विषयमां लीन जीव पंचविध परिवर्तनरूप संसारमां चक्कर लगावे छे अने
मिथ्यात्वनी वासनाने लीधे पोताना हित–अहितनो विचार करी शकतो नथी, तथा धर्म
तरफ तेने रुचि जागती नथी. माटे मोक्ष–सुखने चाहनारा भव्य जीवोए मिथ्यात्व अने
समस्त विषय–कषायो छोडीने, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्मनो उद्यम करवो जोईए.
ए प्रमाणे वैराग्यपूर्वक विचार करतां करतां ते पांडवो द्वारिकाथी प्रस्थान करीने
पल्लवदेशमां आव्या ने त्यां बिराजमान श्री नेमिनाथ तीर्थंकरना दर्शन कर्या, तेमना
केवळज्ञाननी स्तुति करी, ने धर्मनी पिपासापूर्वक तेमनो उपदेश सांभळ्‌यो; तेमज प्रभुनी
वाणीमां पोताना पूर्वभवोनुं वर्णन सांभळीने ते पांडवोने विशेष आत्मशुद्धिपूर्वक घणो
वैराग्य थयो, तेथी तेओ संसारथी विरक्त थया अने प्रभुनी समीपमां दीक्षा लईने मुनि
थया; माता कुन्ती, सुभद्रा तेमज द्रौपदीए पण राजीमतीअर्जिकानी समीप जईने दीक्षा
धारण करी. त्यारबाद विहार करता करता ए पांडव मुनिवरो सौराष्ट्र देशमां आव्या ने
सिद्धक्षेत्र शत्रुंजयतीर्थ उपर आत्मध्यान करवा लाग्या.

केवा हशे पांडव मुनिराज...अहो! एने वंदन लाख...
राजपाट त्यागी वस्या उन्नत पर्वतमां, जेणे छोड्यो स्नेहीओनो साथ...अहो०
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना धारक, करे कर्मोने बाळी खाख...अहो०
शत्रु के मित्र नहीं कोई एना ध्यानमां, वसे ए स्वरूप–आवास...अहो०
प्रमत्त–अप्रमत्त भावमां ए झूलता, आत्मआनंदमां रमनार...अहो०
राग के द्वेष नहीं कोई एना ध्यानमां, मात्र करे आत्मा केरुं ध्यान...अहो०
परिषहोमां जेणे उपेक्षा करीने, जल्दी कर्यो सिद्धिमां निवास...अहो०
(सं. २००६मां शत्रुंजयतीर्थनी यात्रा वखते पर्वत उपर थयेली भक्तिमांथी)