: १२ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
तारामां छे, तारुं ज्ञानजीवन तारामां छे, तेने भूलीने क्षणेक्षणे अज्ञानथी भावमरणमां
तुं मरी रह्यो छे. ते भावमरणथी बचवा माटे अने आत्मानुं आनंदमय जीवन प्राप्त
करवा माटे ज्ञानीनो आ उपदेश छे.
आत्मानी निजनी किंमत आव्या वगर परनी किंमत जाय नहीं; अने परनी
किंमत गया वगर आत्मानी किंमत आवे नहीं. पैसाना जड ढगला भेगा कर्ये
तेमांथी कांई सुख नीकळतुं नथी. अमेरिकाना लोको सुखी हशे एम भ्रमणाथी लोको
माने छे. पण अमेरिकाना अबजोपति लोको पण कहे छे के आटली संपत्ति होवा
छतां अमे दुःखी छीए, अमने शांति नथी, शांति माटे अमारे कोई अध्यात्मसंपत्ति
शोधवी पडशे. बहारमां धनना ढगला होय, राजपाट होय तेथी आत्माने शुं?
आत्मामां ए कोई चीज आवती नथी ने तेमांथी आत्मानुं सुख आवतुं नथी. एनी
ममताथी तो मात्र संसार वधे छे, आत्मानुं सुख तो पोतामां छे, जेम चणानी
मीठाश चणामांथी ज प्रगटे छे,–तावडामांथी नथी आवती; तेम आत्माना आनंदनो
मीठो स्वाद आत्मामांथी ज प्रगटे छे, शरीरमांथी के संयोगमांथी आवतो नथी.
प्रभु! तुं पोते ज्ञानरूप छो; तारा आवा आत्माने तुं लक्षमां तो ले. संतो तने
भगवान कहीने बोलावे छे. तुं पामर नथी, राग जेटलो तुं नथी, राग तो मेल छे
ने तुं तो निर्मळ चैतन्यस्वभावथी भरेलो भगवान छो. अहा! आत्माने
‘भगवान’ कहीने बोलावे–ए केवी मीठी वात! जेना अंतरमां पोतानुं
भगवानपणुं बेठुं ते अल्पकाळमां भगवान थये छूटको.
आत्मा ज्यारे पोतानी शुद्धतानुं आराधन करे छे त्यारे पाप अने पुण्य बंने
भावो छूटी जाय छे, केमके पुण्य–पाप ते आत्मानुं असली स्वरूप नथी. आत्मा तो
चैतन्यमूर्ति भगवान छे. पण तुं तने भूल्यो छो.–कोईए तने भुलाव्यो नथी; भूल तें
करी छे, ने साचुं भान करीने ते भूलनो भांगनार पण तुं ज छो. भूलमां भले
अनंतकाळ गुमाव्यो पण पोतानुं स्वरूप नाश थई गयुं नथी; भगवान जेवुं तारुं
स्वरूप एम ने एम पड्युं छे. ‘तुं भगवान छो’ एम निजस्वरूपने लक्षमां ले तो
संसारनो नाश थईने मोक्षनी प्राप्ति थतां अनंतकाळ नहीं लागे; आत्मानुं भान करतां
अल्पकाळमां ज मोक्ष थशे.
(प्रवचन पछी दरबारहोलमां श्री आदिनाथ भगवानने बिराजमान करीने
भक्ति थई हती; अने ‘दरबार प्रभुका मनोहर है’ ईत्यादि भक्तिगीतो पू. बेनश्री–
बेने गवडाव्या हता. जसदणमां महावीर भगवाननुं नानकडुं जिनमंदिर रंगबेरंगी
चित्रो अने सिद्धांतसूत्रोथी शोभे छे.)