Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
(१) आत्मज्ञान पूर्वक संसारनी असारताने समजीने जेओ तेनाथी विरक्त
थई, दिगंबर मुनिदशा धारण करी, मात्र पोताना आत्मानी उन्नत्तिरूप ध्येयसिद्धि माटे
सदा उद्यमवंत छे.
(२) बीजा मनुष्यो एवा छे के जेओने पोताना आत्मानी उन्नत्तिना ध्येयनी
साथे साथे पूर्वसंचित कर्मअनुसार सांसारिक प्रवृत्तिओमांथी पण पसार थवुं पडे छे.
हवे आमांथी पहेलां प्रकारना मनुष्योने माटे तो खास कोई प्रश्नो उपस्थित थता
नथी, कारण के ते साधुओ महद् अंशे एकांत जीवन पसंद करीने दुनियाना कोई पण
प्रवाहमां नहीं खेंचाता पोताना आत्मानी मस्तीमां ज मस्त रहे छे.
बीजा प्रकारना मनुष्योने संसारनी अनेक झंझट वच्चे उत्तम जीवन क्या प्रकारे
जीववुं–ते समस्या विचारवानी छे.–आ माटे मारा जेवो सामान्य मानवी शुं लखी शके?
आपणा ‘आत्मधर्म’ ना अंको ज ते सामग्रीथी भरपूर होय छे.
सामान्यपणे सारा के माठा गणाता प्रसंगोमां सुख के दुःखनी कल्पना करीए
छीए, तेवी कोईपण कल्पनाथी पर थईने मात्र आपणा आत्मा तरफ ज ध्यान केन्द्रित
करवाथी, बंनेमांथी कोई प्रकारनो (राग–द्वेषनो) भाव मनमां न आवतां साची शांति–
आनंद ने सुख थाय छे. आत्मा स्वयं आनंदमय छे, तेथी तेना लक्षे आनंद थाय छे.
आवुं आनंदमय जीवन ए ज उत्तम जीवन छे.
जे सुख–शांति–आनंद आत्मामां छे ते प्राप्त करवा माटे निमित्तरूपे
आत्मोन्नत्तिमां सहायरूप थाय एवुं श्रवण–वांचन–सत्संग–चर्चा–विचारणा तेमां भाग
लेवो; अने सांसारिक कार्यो वखते पण आत्माभिमुख रहेवानो सतत प्रयत्न करवो,–ते
उत्तम जीवन जीववानो सर्वोत्तम मार्ग छे.
(निबंध नं: २) उत्तम जीवन...(ले: गीताबेन चावडा, राजकोट)
उत्तम जीवन जीववा माटे अमे हंमेशा वहेला ऊठी आत्मानो विचार करशुं, अने
नमस्कार–मंत्र बोली प्रभुनुं स्मरण करी, जिनमंदिरे दर्शन करीशुं, त्यारबाद शास्त्रने
वंदन करी तेनी स्वाध्याय करीशुं अने गुरुनो उपदेश सांभळी तेना पर विचार करशुं.
(आ व्यवहारशुद्धी)
पारमार्थिक उत्तम जीवन जीववा माटे, हुं अजर–अमर आत्मा छुं, हुं शरीर
नथी–एम ओळखशुं; अने शरीर सुखी होवाथी हुं सुखी तथा शरीर