: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ३७ :
दुःखी होवाथी हुं दुःखी–एम न मानतां चैतन्यसुखथी भरेला आत्मस्वरूपने ओळखशुं
अने राग–द्वेषना त्यागनो उद्यम करीशुं.–एम करीने वीतरागभावरूप उत्तम जीवन
जीवशुं.
–ए माटे प्रथम तो जीवादि सात तत्त्वनी समजणमां अनादिनी जे भूल छे ते
दूर करी, सात तत्त्वने बराबर ओळखी, मिथ्यात्वनो नाश करीशुं, ने भेदज्ञान प्राप्त
करीशुं. कंदमूळ वगेरे जे अभक्ष छे तेनो त्याग करीशुं. अने सम्यक्त्वनी प्राप्ति माटे
जिनदेवे प्ररूपेला साचा तत्त्वनो अभ्यास करी आत्मानुं स्वरूप समजशुं.–ए ज उत्तम
जीवन जीववानी रीत छे.
–जेवी रीते समुद्रमां डुबेलुं अमूल्य रत्न फरीथी हाथमां नथी आवतुं, तेवी रीते
संसारसमुद्रमां मनुष्यपणुं श्रावककुळ अने जिनवचनोनुं श्रवण करवानो सुयोग महा
भाग्ये मळ्यो छे. तेमां जो आत्मकल्याण न कर्युं तो फरीने तेनी प्राप्ति दुर्लभ छे. माटे
आ अवसरने न गुमावतां आत्माना स्वरूपनी ओळखाण करीने जीवनने सफळ करवुं.
आत्महितैषी जीवनुं कर्तव्य छे के धन–घर–माता–पिता–कीर्ति–निंदा–रोग–नीरोगी
शरीर तेनाथी आत्माने लाभ–नुकशान न माने; तेनाथी भिन्न आत्माने जाणवो. ते
पदार्थो मात्र ज्ञेय छे; तेमां कोईने अनुकूळ के प्रतिकूळ मानवा ते जीवनी भूल छे.
अनुकूळ के प्रतिकूळ संयोगो जीवने सुख–दुःखनां कारण नथी. पुण्यना फळमां पण हर्ष
न करवो, केम के ते आत्माथी भिन्न जात छे, तेमां पण सुख नथी.
रत्नत्रय ते ज उत्तम छे; एटले उत्तम जीवन जीववा माटे रत्नत्रयपूर्वक हिंसादि
सर्वे पापोनो त्याग करवो. (हिंसा–जूठूं–चोरी–अब्रह्म अने परिग्रह ते सर्वे पापोने
रत्नत्रयवडे छोडवा.) वचनविकल्प छोडीने (गुप्तिपूर्वक) अत्यंत निर्मळ
वीतरागतापूर्ण ध्यान करवुं, आत्मस्वरूपमां उपयोगने एकाग्र करीने लीन थवुं.
हुं चैतन्यस्वरूप छुं, पूर्ण ज्ञानस्वरूप छुं, परथी भिन्न छुं अने त्रिकाळ
निजस्वरूपमां स्थायी छुं, पूरो परमेश्वर हुं पोते ज छुं अने परमाणु मात्र मारुं नथी.–
आवुं जे जाणे छे ते ज उत्तम जीवन जीवे छे. तेथी कुंदकुंदस्वामीए कह्युं छे के–
“हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञान–दर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!”
–आवी अनुभवदशारूप जीवन ते उत्तम जीवन छे.