Atmadharma magazine - Ank 317
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : आत्मधर्म : फागण : २४९६
* धर्मी जीवे केवो अनुभव कर्यो? *
(गोंडल, जोरावरनगर अने अमदावादना प्रवचनमांथी: माह सुद १३ थी वद १)
जे धर्मात्मा थयो ते पोताना आत्माने केवो अनुभवे छे? तेनुं अलौकिक वर्णन
आ ३८ मी गाथामां कर्युं छे–
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञान–दर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे.
आत्मा ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण, देहथी भिन्न अरूपी वस्तु छे; आवो होवा
छतां अनादिथी पोते पोताने भूलीने, मोहना गांडपणथी परने अने पोताने
एकमेक मानतो थको अप्रतिबद्ध रह्यो हतो, अत्यंत अज्ञानी हतो. ते अज्ञाननुं
गांडपण पण पोते ज पोताने भूलीने ऊभुं कर्युं हतुं. हवे ज्ञानी–संत–धर्मात्माना
उपदेशथी प्रतिबुद्ध थयो–आत्मज्ञान पाम्यो, त्यारे आत्माने केवो जाण्यो? के
पोताना आत्माने परमेश्वर जाण्यो; अहो! हुं तो सर्वज्ञपरमात्मा जेवो ज्ञान–
आनंदथी परिपूर्ण छुं.
जेम मूठीमां राखेलुं सोनुं भूली जईने बहार शोधे ने मूंझवणथी दुःखी थाय के
मारुं सोनुं खोवाई गयुं; पण कोईए तेने बताव्युं के तारुं सोनुं तारी मूठीमां ज पडयुं
छे, खोवाई नथी गयुं; माटे भ्रम छोड ने मूठी उघाडीने जो. त्यारे पोतानी मूठीमां ज
पोतानुं सोनुं देखीने जेम आनंदित थाय; तेम पोतानो चैतन्यपरमेश्वर आत्माने भूली
जईने, राग हुं–शरीर हुं एम अनुभव करीने मोहथी दुःखी थयो; पोताना आत्माने,
पोताना धर्मने बहार ढूंढयो. पण ज्ञानीए तेने समजाव्युं के भाई! तुं तो चैतन्यस्वरूप
आत्मा छो, ज्ञान ज तुं छो; राग तुं नथी, शरीर तुं नथी. शरीरथी ने रागथी भिन्न तारुं
चैतन्यस्वरूप छे ते खोवाई नथी गयुं, माटे भ्रम छोडीने अंतरमां जो. ए प्रमाणे
पोतामां ज पोताना आत्माने देखीने जीव आनंदित थाय छे. अरे! गुरुनो परम
उपकार छे के वारंवार उपदेश आपीने मने मारा आत्मानुं स्वरूप बताव्युं. मारो आत्मा
तो चैतन्यस्वरूप हतो ज, पण हुं मने भूली गयो हतो; हवे श्रीगुरुना उपदेशथी मारा
आत्माने स्वसंवेदनप्रत्यक्षरूप में अनुभव्यो.
आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे, पोताना अनुभवथी पोते वेदनमां आवे छे, ए
सिवाय बीजी कोई रीते आत्मा जणाय नहीं. बहारमां धर्मीने कदाच ईन्द्रपदनो