: फागण: २४९६ आत्मधर्म : ३९ :
के राजपदनो संयोग हो, पण चैतन्यस्वरूपमां ते संयोगनो प्रवेश नथी. संयोगमांथी के
रागमांथी सुख लेवानी बुद्धिथी जीवो दुःखी छे. ज्ञानी तो जाणे छे के–
आतमराम अविनाशी आव्यो एकलो,
ज्ञान अने दर्शन छे मारुं रूप जो.
ज्ञानदर्शनमय पोतानुं स्वरूप छे, ते अविनाशी एकरूप छे; बहारना भावोनो
तेमां प्रवेश नथी–
बहिरभावो ते स्पर्शे नहीं आत्मने,
खरेखरो ए ज्ञायकवीर गणाय जो.
परथी भिन्न चिदानंदस्वभाव तरफनी सावधानीथी सम्यग्दर्शन थाय छे;
ते सम्यग्दर्शन थतां पोताना अंतरमां पोताना आत्माने ज परमेश्वर स्वरूपे ज्ञानी
देखे छे. शरीर हुं, मनुष्य हुं, राग–द्वेषी हुं–एवी मिथ्याबुद्धिवश जीव पोताना
चेतनस्वरूपने भूल्यो हतो; भूल्यो हतो पण कांई तेनो नाश थई गयो न हतो;
तेथी ज्यारे स्वानुभवी गुरुना उपदेशथी प्रतिबुद्ध थयो त्यारे पोताना स्वरूपने
पोतामां ज जाण्युं के हुं तो ज्ञान–दर्शनथी ज भरपूर परिपूर्ण छुं.
आत्मानुं शुद्धस्वरूप श्रीगुरुए निरंतर समजाव्युं, एटले के शिष्यने ते स्वरूप
समजवानी निरंतर जिज्ञासा हती; तेणे अंतरना प्रयत्नवडे स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी
पोताना आत्माने जाण्यो. जाणतां ज अंदरथी अपूर्व आनंद अने शांतिनुं वेदन थयुं;
पोताने पोतानी खबर पडी के मारा शुद्ध आत्माने में जाण्यो छे. आवा आत्मानो
अनुभव करीने ज्ञानप्रकाशवडे मोहनो एवो नाश कर्यो के फरीने कदी अज्ञान न थाय.
आत्मानुं ज्ञान करीने तेमां रम्यो ते साचो आत्माराम थयो. आत्मारूपी जे आनंदनो
बगीचो तेमां धर्मीजीव केलि करे छे.
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आत्मा केवो छे? के सहज एक ज्ञायकभावरूप छे. तेना अनुभवथी ज
सम्यग्दर्शन छे. भूतार्थस्वभाव सिवायना जे व्यवहारिक नवतत्त्वो छे ते–रूपे आत्माने
अनुभवतां सम्यक्त्व थतुं नथी. धर्मी पोताना शुद्ध आत्माने ते व्यवहारिक नवतत्त्वोथी
अत्यंत जुदो, एकरूप अनुभवे छे.
अहो, आवी सत्य चैतन्य वस्तुनुं श्रवण पण मळवुं जीवने दुर्लभ छे. अने
महाभाग्ये सांभळवा मळे तो तेनो अंतरमां निर्णय करीने तेने लक्षगत करवी ते अपूर्व
प्रयत्नथी थाय छे.